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बुधवार, 2 नवंबर 2011

तुम्म्हारी आँच

जीवन की
सर्द और स्याह रातों में
भटकते भटकते आ पहुँचा था
तुम तक
उष्णता की चाह में
और तुम्हारी ऑच
जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें
ठीक उसी तरह
जैसे धीमी ऑच पर
रखा हुआ दूध
जो समय के साथ
हौले हौले अपने अंदर
समेट लेता है सारे ताप को
लेकिन उबलता नहीं
बस भाप बनकर
उडता रहता है तब तक
जब तक अपना
मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता
और बन जाता है
ठेास और कठोर
कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
लगातार हर पल
शायद ठोस और कठोर
होने तक या
उसके भी बाद
ऑच से जलकर
राख होने तक ?

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति , आभार.

    जवाब देंहटाएं
  2. रचना बहुत अच्छी लगी |बधाई |
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छे भाव और संवेदना को जगाती कविता !

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन कविता भाई,

    साधुवाद स्वीकार कीजिए.

    जवाब देंहटाएं
  5. nisha ji
    S.N.shukla ji
    mahendra srivastava ji
    asha ji
    santosh ji
    arvind ji
    dipak baba ji
    danish ji
    aap sab ka tahe dil se aabhar ki aapne samay nikalkar meri post ko pada.
    isi tarah aashirwad banaaye rakhiyega.
    punah aabhar

    जवाब देंहटाएं
  6. nisha ji
    S.N.shukla ji
    mahendra srivastava ji
    asha ji
    santosh ji
    arvind ji
    dipak baba ji
    danish ji
    aap sab ka tahe dil se aabhar ki aapne samay nikalkar meri post ko pada.
    isi tarah aashirwad banaaye rakhiyega.
    punah aabhar

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  7. संवेदना जगाती बहुत सुंदर रचना,..बधाई ...
    मेरे नए पोस्ट में स्वागत है....

    जवाब देंहटाएं

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