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बुधवार, 28 सितंबर 2011

रावण दहन


खुद ही बनाते हैं, खुद ही जलाते हैं,
यूँ कहें कि हम अपनी भड़ास मिटाते हैं |

समाज में रावण फैले कई रूप में यारों,
पर उनसे तो कभी न पार हम पाते हैं |

रावण दहन के रूप में एक रोष हम जताते हैं,
समाज के रावण का खुन्नस पुतले पे दिखाते हैं |

उसी रावण की तरह होता है हर एक रावण,
पुतले की तरह हर रावण को हम ही उपजाते हैं |

हर भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी एक रावण ही तो है,
यहाँ तक कि हम सब अपने अंदर एक रावण छुपाते हैं |

इन सब से मुक्ति शायद बस की अब बात नहीं,
इसलिए रावण दहन कर अपनी भड़ास हम मिटाते हैं |

7 टिप्‍पणियां:

  1. सच है!
    भड़ास भी निकालते हैं और रावन को रावण जलाते भी पाते हैं....

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  2. बिल्कुल सच कहा..अच्छी रचना..

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  3. सच्चाई को आपने बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!

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  4. सच्चाई का बहुत सटीक और प्रभावी चित्रण...नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं !

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