खुद ही बनाते हैं, खुद ही जलाते हैं,
यूँ कहें कि हम अपनी भड़ास मिटाते हैं |
समाज में रावण फैले कई रूप में यारों,
पर उनसे तो कभी न पार हम पाते हैं |
रावण दहन के रूप में एक रोष हम जताते हैं,
समाज के रावण का खुन्नस पुतले पे दिखाते हैं |
उसी रावण की तरह होता है हर एक रावण,
पुतले की तरह हर रावण को हम ही उपजाते हैं |
हर भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी एक रावण ही तो है,
यहाँ तक कि हम सब अपने अंदर एक रावण छुपाते हैं |
इन सब से मुक्ति शायद बस की अब बात नहीं,
इसलिए रावण दहन कर अपनी भड़ास हम मिटाते हैं |
यूँ कहें कि हम अपनी भड़ास मिटाते हैं |
समाज में रावण फैले कई रूप में यारों,
पर उनसे तो कभी न पार हम पाते हैं |
रावण दहन के रूप में एक रोष हम जताते हैं,
समाज के रावण का खुन्नस पुतले पे दिखाते हैं |
उसी रावण की तरह होता है हर एक रावण,
पुतले की तरह हर रावण को हम ही उपजाते हैं |
हर भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी एक रावण ही तो है,
यहाँ तक कि हम सब अपने अंदर एक रावण छुपाते हैं |
इन सब से मुक्ति शायद बस की अब बात नहीं,
इसलिए रावण दहन कर अपनी भड़ास हम मिटाते हैं |
so true....
जवाब देंहटाएंसच है!
जवाब देंहटाएंभड़ास भी निकालते हैं और रावन को रावण जलाते भी पाते हैं....
बिल्कुल सच कहा..अच्छी रचना..
जवाब देंहटाएंसच्चाई को आपने बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंसच्चाई का बहुत सटीक और प्रभावी चित्रण...नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंआप सबका धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||