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रविवार, 11 सितंबर 2011

लेता देता हुआ तिहाड़ी, पर सरकार बचा ले कोई ||


माननीय प्रतुल वशिष्ठ जी
की महती कृपा !!
उनका विश्लेषण भी पढ़ें |

आलू   यहाँ   उबाले   कोई  |
बना  पराठा  खा  ले  कोई ||
आलू उबाला तो जनता ने था... लेकिन पराठा नेताजी खा रहे हैं.


तोला-तोला ताक तोलते,
सोणी  देख  भगा  ले कोई |
मौके की तलाश में रहते हैं कुछ लोग ...
जिस 'सुकन्या' ने विश्वास किया ..
उस विश्वास के साथ 'राउल' ने घात किया.


 
जला दूध का छाछ फूंकता
छाछे जीभ जला ले कोई |
हमने कांग्रेस को फिर-फिर मौक़ा देकर अपने पाँव कुल्हाड़ी दे मारी...
हे महाकवि कालिदास हमने आपसे कुछ न सीखा!


जमा शौक से  करे खजाना 
आकर  उसे  चुरा ले कोई ||
काला धन जमा करने वाले इस बात को समझ नहीं रहे कि
विदेशी चोरों को जरूरत नहीं रही चुराने की... अब वे घर के मुखियाओं को मूर्ख बनाना जान गये हैं... धन की बढ़ती और सुरक्षा की भरपूर गारंटी देकर वे उस घन का प्रयोग करते हैं... शास्त्र कहता है 'धन का उपयोग उसके प्रयोग होने में है न कि जमा होने में.'


लेता  देता  हुआ  तिहाड़ी
पर सरकार बचा ले कोई ||
लेने वाले और देने वाले दोनों तिहाड़ में पहुँचे ...
लेकिन उनके प्रायोजकों पर फिलहाल कोई असर नहीं... यदि कुछ शरम बची होगी तो शर्मिंदगी जरूर होती होगी... जो कर्म दोषी करार हुआ उसका फ़ल (सरकार का बचना) कैसे दोषमुक्त माना जाये?
... वर्तमान सरकार पर जबरदस्त जुर्माना होना चाहिए और इन सभी मंत्रीवेश में छिपे गद्दारों को कसाब के साथ काल कोठारी बंद करना चाहिए... ये सब के सब उसी पंगत में खड़े किये जाने योग्य हैं.

"रविकर" कलम घसीटे नियमित
आजा  प्यारे  गा  ले  कोई ||
रविकर जी, आपको लगता होगा कि आप कलम यूँ ही घसीट रहे हैं...
हम जानते हैं कि ये जाया नहीं जायेगा.... आपका श्रम आपकी साधना फलदायी अवश्य होगी.
दिनकर जी पंक्तियों में कहता हूँ :
कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं.
है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं.
पर, हाँ वसुधा दानी है, नहीं कृपण है.
देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है.
यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है.
बदले में कोई डूब हमें देती है.
पर, हमने तो सींचा है उसे लहू से,
चढ़ती उमंग को कलियों की खुशबू से.
क्या यह अपूर्व बलिदान पचा वह लेगी?
उद्दाम राष्ट्र क्या हमें नहीं वह देगी?

ना यह अकाण्ड दुष्कांड नहीं होने का
यह जगा देश अब और नहीं सोने का
जब तक भीतर की गाँस नहीं कढ़ती है
श्री नहीं पुनः भारत-मुख पर चढती है
कैसे स्वदेश की रूह चैन पायेगी?
किस नर-नारी को भला नींद आयेगी?...

 क्लिक --अमर दोहे

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा रचना | आपको सलाम रविकर जी |बहुत उम्दा रचना | आपको सलाम रविकर जी |

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  2. छोटी छोटी पंक्तियों से सजी कविता ने बड़ी-बड़ी बात कह दी.

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  3. दोहे तो वाकई अमर रहेंगे आज के माहौल पर सटीक.

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  4. आलू का पराठा बनाए कोइ और बना बनाया खाले कोइ
    बहुत मजा आया पढ़ कर

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