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सोमवार, 20 जनवरी 2025
मेरे घर का मौसम
रविवार, 19 जनवरी 2025
मैं
मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं,
मुझको है संतोष इसी से
सबकी अपनी सूरत,सीरत
क्यों निज तुलना करूं किसी से
ईश्वर ने कुछ सोच समझकर
अपने हाथों मुझे गढ़ा है
थोड़े सद्गुण ,थोड़े दुर्गुण
भर कर मुझको किया बड़ा है
अगर चाहता तो वह मुझको
और निकृष्ट बना सकता था
या चांदी का चम्मच मुंह में,
रखकर कहीं जना सकता था
लेकिन उसने मुझको सबसा
साधारण इंसान बनाया
इसीलिए अपनापन देकर
सब ने मुझको गले लगाया
वरना ऊंच-नीच चक्कर में,
मिलजुल रहता नहीं किसी से
मैं जो भी हूं जैसा भी हूं ,
मुझको है संतोष इसी से
प्रभु ने इतनी बुद्धि दी है
भले बुरे का ज्ञान मुझे है
कौन दोस्त है कौन है दुश्मन
इन सब का संज्ञान मुझे है
आम आदमी को और मुझको
नहीं बांटती कोई रेखा
लोग प्यार से मुझसे मिलते
करते नहीं कभी अनदेखा
मैं भी जितना भी,हो सकता है
सब लोगों में प्यार लुटाता
सबकी इज्जत करता हूं मैं
इसीलिए हूं इज्जत पाता
कृपा प्रभु की, मैंने अब तक,
जीवन जिया, हंसी खुशी से
मैं जो भी हूं ,जैसा भी हूं
मुझको है संतोष इसी से
मदन मोहन बाहेती घोटू
मंगलवार, 14 जनवरी 2025
उतरायणी पर्व
उतरायणी है पर्व हमारा,
समता को दर्शाता है।
कहीं मनाते लोहड़ी इस दिन,
कोई बिहू मनाता है।
महास्नान गंगासागर में,
जो उतरायणी को करता।
जप,तप,दान और तर्पण कर,
मानस मन उज्जवल होता।
देवालय में लगते मेले,
तिल, गुड़ के पकवान बनाते।
इसी तरह हो मीठा जीवन,
आपस में सब मिलजुल गाते।
आटे में गुड़ मिला गूंथकर,
घुघुते और खजूर बनाते।
इन्हें पिरोकर माला में फिर,
बच्चे काले कौवा गाते।
त्यौहारों का देश हमारा,
सदा यहां खुशहाली है।
मिलजुल कर त्यौहार मनाते,
भारत की शान निराली है।
हेमलता सुयाल
स॰अ॰
रा॰प्रा॰वि॰जयपुर खीमा
क्षेत्र-हल्दवानी
जिला-नैनीताल
शुक्रवार, 10 जनवरी 2025
मेहमान का सत्कार
मेरे एक मित्र ने बात चीत में यह बताया कि वह किसी रिश्तेदार के घर ,रात्रि विश्राम के लिए गये थे।
शेष उनके अनुभव कुछ ऐसे थे।
।।।।।मेहमान का सत्कार।।।
बात चीत होगी जी भरकर।
पहुंचा था मैं यही सोचकर।
कुशल क्षेम जल पान हुआ।
भोजन का निर्माण हुआ।
बैठक कक्ष में खुल गया टी0वी0।
साथ-साथ बैठ गये तब हम भी।
सब के हाथ तब फोन आ गया।
टी0वी0 का आभाष चला गया।
सब टप-टप करने लगे फोन पर।
किसकी किसको सुध वहां पर?
व्यक्ति पांच पर सभी अकेले।
थे गुरु को हाथ उठाये चेले।
सब दुनिया से बेखबर वे।
भ्रांति लोक में पसर गये वे।
मन ही मन वे कभी मुस्कराते।
कभी मुख भाव कसैला लाते।
फिर मैंने भी फोन उठाया।
भ्रांति लोक में कदम बढाया।
पल ,मिनट,घंटे बीत गये।
यहां किसी को सुध नहीं रे।
तभी किसी का फोन बज उठा।
अनचाहे वह कान में पहुंचा।
बात हुई कुछ झुंझलाहट में।
नजर गयी दीवाल घडी़ में।
रात्रि के दस बज गये थे।
शीतल सब पकवान पेड़ थे।
इतनी जल्दी दस बज गये।
व्यन्जन सारे गर्म किये गये
खाना खाया फिर सो गये।
सुबह समय से खडे हो गये।
फिर मैं अपने घर आ गया।
सत्कार मेरे ह्रदय छा गया।
।।।विजय प्रकाश रतूडी़।।।