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सोमवार, 4 अप्रैल 2016

कोई छेड़े बुढ़ापे में

         कोई छेड़े बुढ़ापे में

बहुत सी आग होती है ,जवां सूरज के सीने में ,
मगर जब ढलने लगता तो नजारे और होते है
कली खिलती ,महकती है तो मंडराते कई भंवरें,
मगर मुरझाए फूलों के वो प्यारे और  होते है
बहारों में ,दरख्तों पर ,अलग ही नूर होता है ,
मज़ा तब है कि पतझड़ में भी ,वो हमको लगे प्यारे
सभी के मन लुभाती ,हर हसीना है जवानी में,
मज़ा आता बुढ़ापे में  ,कोई लाइन  जब मारे
चाहने वालों की जिनकी ,बड़ी फेहरिश्त होती थी ,
सुने फिकरे जवानी में ,न जाने कितने दिल तोड़े
बुढ़ापे में भी रह रह कर ,सताया करती  है उनको,
जवानी वाली वो यादें ,कभी पीछा  नहीं छोड़े
गयी रौनक ,गयी मस्ती ,उमर का मोड़ ये ऐसा ,
अगर इसमें भी दीवाना ,कोई  दिल को लुटाता है
तसल्ली मिलती है दिल को ,अभी भी बाकी हम में दम ,
शगल ये छेड़खानी का ,बड़ा दिल को सुहाता  है
किसी ने मुस्करा कर के ,अगर दो बात जो करली ,
न पड़ता फर्क मियां को ,न दुनिया को ही होता शक
भले तन में नहीं हिम्मत ,बदलना स्वाद पर चाहें ,
दबी दिल की तमन्नाएं ,भड़कती रहती है जब तब
पुराने राजमहलों की भी अपनी शान होती है ,
करे तारीफ़ कोई तो,दीवारें मुस्कराती है
हम हंस हंस कर उठाते है ,मज़ा ये छेड़खानी का ,
हमें बीती हुई अपनी  ,जवानी  याद आती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

यूं ही तो बात ना बनती

      यूं ही तो बात ना बनती

कोई पत्ता ,कहीं एक डाल का ,पीला पड़ा होगा ,
समझ ये लोग बैठे कि ,आगई ऋतू है बासंती
                             यूं ही  तो बात ना बनती
 अगर फैला है अंधियारा तो सूरज ढल गया होगा,
दिखी है रौशनी थोड़ी , कहीं दीपक जला  होगा
उछलती कूदती गंगा ,जो उतरी है  पहाड़ों से ,
किसी हिमखंड का सीना,कहीं से तो गला होगा
निमंत्रण कुछ तो लहरों ने समंदर की दिया होगा ,
नहीं तो बावरी नदियां ,मिलन को यूं नहीं भगती
                                   यूं ही तो बात ना बनती
कोई चिंगारी उड़ कर के,कहीं से आई तो होगी ,
समझ कर आग लोगों ने ,यूं ही हलचल मचा डाली
और कुछ नारदो  की टोलियों ने लगा कर  तिकड़म ,
जरा सी बात जो भी थी ,बतंगड़ सी बना  डाली
बहुत कोशिश थी जल जाए लेकिन थोड़ा ही सुलगा ,
नहीं तो धुवाँ ना उठता   ,ये थोड़ी आग ना लगती
                                   यूं ही तो बात ना बनती
दबा था बीज छोटा सा ,पनपता देख कर उसको ,
पुराने बरगदों में चिंताएं अस्तित्व की छायी
आसुरी ताक़तों ने पनपता देवत्व जब देखा ,
बिलों से भीड़ साँपों की,तिलमिला कर निकल आई
किसी इन्दर ने छलबल से धरा था रूप गौतम का,
अहिल्या सी सती  नारी ,यूं ही पाषाण ना बनती
                                  यूं ही तो बात ना बनती  

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
                                   

खस्ता

        खस्ता

खस्ता रोटी अच्छी लगती,स्वाद गजक खस्ता का बढ़िया
खस्ता सिकी मूंगफली अच्छी,भाती खस्ता  आलूटिकिया
मन आनन्दित होजाता यदि ,खस्ता मिले कचोडी  खाने
खस्ता भुजिया ,पापड़,मठरी  , खाने  के सब ही दीवाने
खस्ता  सभी चीज मनभावन ,उनका स्वाद जुबां पर बसता
तो क्यों जब हालत बिगड़ी हो ,हम कहते हालत है खस्ता

घोटू  

भड़ास

        भड़ास

यह एक कटु सत्य है ,
कि हर पति की तरह ,
मै भी अपनी पत्नी से डरता हूँ
और उनकी उँगलियों के ,
इशारों पर नाचा करता हूँ
चाहे किसी की भी हो गलती
डाट मुझ पर ही पड़ती
पत्नी के आगे मेरी एक नहीं चलती
रह जाता हूँ मन मसोस
और अपनी तक़दीर को कोस
सोचता हूँ कि मै अकेला ही नहीं हूँ,
जिसे झेलनी पड़ती ये मुसीबत है
हर पति की ये ही हालत है
फिर भी निकालने को मन के भड़ास
मै भिंडी की सब्जी बनाता हूँ ख़ास
लम्बी लम्बी भिंडियों को काट कर ,
फिर उनमे चीरा लगा कर
मिर्च और मसाला देता हूँ भर
फिर उन्हें गरम गरम तेल में पकाता हूँ
और दबा दबा कर खाता हूँ
क्योंकि भिंडियों को अंग्रेजी में ,
कहते है लेडी फिंगर
याने औरत की उँगलियाँ ,
और यही सोच कर
कि मेरे ऊपर  जो उंगलियों के
इशारों ने किया है अत्याचार
उसका मैं लेता हूँ  प्रतिकार
चाहे गलत है या सही है
मेरा भड़ास निकालने का तरीका यही है
और कुछ कर सकने की ,
मुझमे हिम्मत ही नहीं है
या फिर टी वी का रिमोट लेकर ,
बार बार चैनल हूँ बदलता
और दूर करता हूँ अपनी व्याकुलता
और यही सोच कर मन बहलाता हूँ ,
कि कोई तो है जो मेरे इशारों पर चलता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सांसें बहुएं एक सरीखी

            सांसें बहुएं एक सरीखी

औरत होकर भी औरत का ,साथ निभाना ये ना सीखी
सारी  सासें    एक सरीखी, सारी  बहुएं   एक  सरीखी
चाहे मीठी बात बना कर ,बातें करती हो शक्कर सी
पर जब भी मौका मिलता है ,आपस में देती टक्कर 
हरी ,लाल हो चाहे काली , हर  मिरची  होती है तीखी
सारी सांसें  एक सरीखी ,सारी  बहुएं  एक  सरीखी
माँ  सोचे  बेटा बेगाना  हुआ , हुई  शादी  उस पल से
बहू सोचती कैसा पति है ,बंधा रहे माँ के   आंचल  से
 ऐसी ही तो तू तू,मै मै ,होती हर घर में है दिखी
 सारी  सांसें एक सरीखी,सारी   बहुएं  एक सरीखी
वो भी तो थी बहू एक दिन ,उसने भी सांसें झेली है
साँसों की बॉलिंग के आगे ,बेटिंग कर, पाली खेली है
स्पिन और फास्ट थी बालिग़ ,फिर भी है मैदान पर टिकी
 सारी   सांसें  एक  सरीखी ,सारी  बहुएं  एक  सरीखी
बहू दूध है  ताज़ा ताज़ा ,सास  पुराना  जमा  दही  है
करे न तारीफ़ ,कोई किसी की ,उल्टी गंगा कभी बही है
माँ बीबी के बीच फजीहत ,होती है बेचारे  पति की
सारी   सांसें  एक  सरीखी ,सारी  बहुएं  एक सरीखी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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