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मंगलवार, 7 अगस्त 2012

पसीना बहाना

पसीना बहाना

कितनी नाइंसाफी है
गरीब मेहनत कर पसीना बहाता है,
और अमीर को पसीना बहाने के लिए,
'सोना बाथ'लेना काफी है
बस इतना अंतर है
गरीब जब पसीना बहाता है,
चार पैसे कमाता है
और अमीर पसीना बहाने के लिये,
चार आने लगाता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

सोमवार, 6 अगस्त 2012

सीमाओं को लांघने का मज़ा

सीमाओं को लांघने का मज़ा
 
सीमाओं को लांघने का भी,
अपना एक मज़ा है
कूप मंडूक की तरह,
घर की चार दीवारी में ,
सिमट कर रहना
और मौजूदा हालात में,
सुखी और संतुष्ट रहना             
आदमी की नेसर्गिक प्रवृर्र्ती  है
वो जिस हाल में है,
समझता  है खुशहाल है
पर जब वो अपने घोंसले से निकल,
खुली हवा में तैरता है,
तब उसे लगता है ,
कि दुनिया कितनी विशाल है
लहराते समुन्दर,
बर्फ से ढके पहाड़,
झरते हुए झरने,
कल कल करती नदियाँ,
विभिन्न वेशभूषा,
विभिन्न खानपान,
विभिन्न चेहरे मोहरे,
विभिन्न संस्कृतियाँ
ये सब देख कर,
उसकी संकुचित विचारधारा में,
कितना बदलाव आता है
प्रकृति कि इन अद्भुत कृतियों को देख,
वह उस सर्जक को सराहता है
एक बार जरा पंख फडफडा कर,
घोंसले से निकल कर तो देखो,
खुले आसमान में विचर कर तो देखो,
रोज रोज दाल रोटी खाने के बदले,
पीज़ा या नूडल खा ,स्वाद बदल कर तो देखो
तभी जान पाओगे,परिवर्तन क्या है
सीमायें लांघने पर,
समय भी बदल जाता है,
एक बार  सीमायें लांघ कर तो देखो,
सीमायें लांघने में,बड़ा मज़ा आता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

दो अनुभूतियाँ-अलास्का क्रूस से

दो अनुभूतियाँ-अलास्का क्रूस से
                 १
गर्वीला नीला ग्लेशियर,
अपने नीले बरफ के छोटे बड़े  टुकड़े,
अलास्का की खाड़ी में  बहा रहा है
जैसे छोटी छोटी किश्तों में,
अपना ऋण चुका रहा है
और समंदर के पानी में तैरते,
ये नीले ग्लेशियर के टुकड़े,
ऐसे लगते है जैसे,
नीलाम्बर से उतर कर परियां,
नीले तरन वस्त्र पहन कर,
पानी में अठखेलियाँ कर रही हो,
या फिर  स्वर्ग से ,
नीलकमल बह बह कर,
अलास्का की शोभा बड़ा रहे हो
और समंदर के दोनों तरफ,
रजत शिखर सर उठाये,
इस अद्भुत दृश्य को निहार रहे हो
और मै,
एक विशाल जहाज की गेलरी से,
इस मनोहारी दृश्य को  देख,
प्रकृति के सौन्दर्य को सराह रहा हूँ
              2
पानी के जहाज में भरा,
मानवों के झुण्ड को आता देख,
बर्फ से ढके रजत शिखरों ने,
अपने आप को बादलों में छुपा लिया
क्योंकि उन्हें याद आया,
कि किस तरह,
स्वर्ण की तलाश में आई,
मानवों की भीड़ ने,
'गोल्ड रश' के दिनों में,
उनके कितने ही भाई बहनों का,
सीना चीर चीर कर,छलनी कर दिया था

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
           

भ्रष्टाचार

                    
समय था वह ,सबको थी सबके सुखो की कामना
भाग्य को दुर्भाग्य से तब दुःख पड़ा था झेलना
स्वदेश में विदेश के गुलाम बनके हम रहे
भूल कर निज एकता को दासता  के दुःख सहे
महान बलि  तप त्याग से स्वतंत्रता हमें मिली
मिटा के दासता तिमिर प्रभात की कली खिली
था हमसे कुछ  डरा हुआ गुलाम देश में भी वह
प्रयत्न खूब करके भी सता हमे सका न वह
वरन दुखी किया है अब हमे स्वतंत्र देश में
 सता रहा है रात दिन पनपके भ्रष्ट वेश में
दीन का तो त्रु है ऊंचे जनों का यार है
थे जो मिटा सकते इसे उनको इसी से प्यार है
फैलता बढ़ता गया यों  एक दिन वह आयेगा
हम न रह पाएंगे भ्रष्टाचार ही रह जायेगा 

 आनंद बल्लभ पपनै 
(अवकाश प्राप्त अध्यापक)
           रानीखेत
 

रविवार, 5 अगस्त 2012

बिन दोस्ती


क्या होता शमा ये क्या बताऊँ यारों,
भगवान न होते और ये बंदगी न होती;
दोस्तों के बिना शायद कुछ भी न होता,
ये सांसें भी न होती, ये जिंदगी न होती |

खुशियाँ न होती और मुस्कान भी न होते,
जिस्म तो होता पर उसमे जान भी  न होती;
रहता अधूरा शायद हर जश्न-ए-जिंदगी,
दोस्तों के बना अपनी शान भी न होती |

नर्क सा होता उस स्वर्ग का भी मंजर,
महफिल भी शायद वीरान सी ही होती;
दोस्ती है मिश्रण हर रिश्ते का "दीप",
जिंदगी बिन तरकश के बाण सी ही होती |

(सभी मित्रों को समर्पित यह रचना)

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