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गुरुवार, 31 मई 2012

***मुर्दा ***

जिन्दा तो हैं यहाँ
पर प्राण का नाम नहीं,
फिरते हैं यात्र-तत्र
बने जीवित मुर्दा;

कुंठित है सोच
अपंग क्रियाकलाप,
कलुषित है हर अंग
क्या नैन-मुख-गुर्दा |

एक धुंधली ज्योति
है लिए अंतरात्मा,
है उसे लौ बनाके
स्वयं को प्राण देना;

मुर्दा बनके जीना
मृत्यु से भी बद्तर,
है जीवित अगर रहना
बस यही ज्ञान लेना |

ये नींद उचट जब जाती है

ये नींद उचट जब जाती है
सर्दी की हो गर्मी की,
ये रातें बहुत सताती है
ये नींद  उचट जब जाती है
मन के कोने में सिमटी सी
दुबकी,सुख दुःख से लिपटी सी
चुपके चुपके,हलके हलके
आ जाती खोल,द्वार दिल के
कुछ खट्टी कुछ मीठी  यादें
चुभने वाली कडवी यादें
कुछ अपनों की,बेगानों की
गुजरे दिन के अफ्सानो की
कुछ बीती हुई  जवानी की
परियों की मधुर कहानी सी
कुछ कई पुराने बरसों की
कुछ  ताज़ी कल या परसों की
कुछ हमें गुदगुदाती है आकर,
कुछ आंसू  कई रुलाती है
ये नींद उचट जब जाती है
मन करवट करवट लेता है
तन करवट करवट लेता है
सुन तेरे साँसों की सरगम
छूकर रेशम सा तेरा  तन
ये हाथ फिसलने लगते है
 अरमान मचलने लगते है
आ जाते याद पुराने दिन
कटती थी रात नहीं तुम बिन
हम जगते थे,सो जाने को
हम थकते थे ,सो  जाने को
मन अब भी करता है लेकिन
देता है टाल यूं ही ये  तन
मन को मसोस कर रह जाते,
और हिम्मत ना हो पाती है
ये नींद उचट जब जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

ख़ामोशी ....


"खामोश हो तुम ,
पर कुछ कहती हो "
ऐसा कहते हो तुम अकसर !
"दिन में तारे गिनती रहती हो , 
खुली आँख से सपने बुनती हो ,
अछर धुंधला सा है, लेकिन ,
एक खुली किताब सी लगती हो तुम "
ऐसा कहते हो तुम अकसर ! 
"कभी बोलती थकती नही,
जैसे सारे जग का ज्ञान तुम्हे है !
कभी चुप शांत भोली सी,
जैसे कोई नादाँ हो तुम "
ऐसा कहते हो तुम अकसर !
"ख़ामोशी में तेरी बातों को ,
सुन लिया हैचुप से मैंने भी ,
आँखों के तेरे सपनों को ,
बुन लिया है मैंने भी ,
तुम किताब हो तेरी कविता ,
को पढ़ लिया है मैंने भी ,
तेरा बोलना हो या चुप रहना,
मुझको सब अच्छा लगता है !
तेरी बातों में मुझको,
बचपन का सब सच लगता है! "
मुझको याद नहीं है लेकिन ,
ये सुब मुझसे कभी कहा हो !
खामोश हो तुम,
पर कुछ कहती हो, ऐसा कहते हो तुम अकसर .....



बुधवार, 30 मई 2012

जमीन से जुड़ो

       जमीन से जुड़ो

घास ,
जमीन से जुडी होती  है
जो शबनम की बूंदों को भी,
बना देती मोती है
एक छोटा सा बीज,
जब धरती की कोख में समाता है
तो विशालकाय वृक्ष बन जाता है
या कई गुणित होकर,
फसल सा लहलहाता है
तारे,
जो ऊपर आसमान से ताल्लुक रखते है
लुप्त हो जाते है उजाले में,
बस रात को चमकते  है
ये धरा क्या है
ये धरा हमारी माँ है
हमारी काया
को धरा की माटी ने बनाया
हमारा सहारा है,
हमारा आसरा है
आसमान में क्या धरा है
रत्नों की खान,रत्नगर्भा  धरा है
इसलिए ज्यादा ऊंचे मत उड़ो
आसमान का तारा बनने से बेहतर है,
जमीन से जुड़ो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

लालची लड़कियां

           लालची  लड़कियां

कुछ लड़कियां

रंगबिरंगी तितलियों सी मदमाती है
भीनी भीनी खुशबू  से ललचाती है
उड़ उड़ कर पुष्पों पर मंडराती  है
बार बार पुष्पों का रस पीती है
रस की लोभी है,मस्ती से जीती है
कुछ लड़कियां,
कल कल करती नदिया सी,
खारे से समंदर से भी,
मिलने को दौड़ी चली जाती है
क्योंकि समंदर,
तो है रत्नाकर,
उसके मंथन से,रतन जो पाती है
कुछ लड़कियां,
पानी की बूंदों सी,
काले काले बादल का संग छोड़,
इठलाती,नाचती है हवा में
धरती से मिलने का सुख पाने
और धरती की बाहों  में जाती है समा
क्योंकि धरा,होती है रत्नगर्भा  
ये लड़कियां,
खुशबू और रत्नों के सपने ही संजोती है
इतनी लालची क्यों होती है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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