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बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

हे माँ दुर्गा



प्रथम दिवस माँ शैलपुत्री, कष्ट मेरी हर लेना,
मानव जीवन को मेरे, साकार यूंही कर देना |

द्वितीय दिवस हे ब्रह्मचारिणी, विद्या का फल मांगु,
जीवन हो उज्ज्वल सबका, उज्ज्वलता तुझसे चाहूँ |

तृतीय दिवस माँ चंद्रघंटा, मुझको बलशाली करना,
हर मुश्किल से लड़ पाऊँ माँ, शक्तिशाली करना |

चतुर्थ दिवस हे कुष्मांडा, जगत की रक्षा करना,
भक्तों का अपने हे माता, तू सुरक्षा करना |

पंचम दिवस स्कन्द-माता, जगत की माता तू,
मातृत्व तू बरसाना माता, सब कुछ की ज्ञाता तू |

षष्ठी दिवस माँ कात्यायिनी, दुष्टों की तू नाशक,
तू ही तो सर्वत्र व्याप्त माँ, तू ही सबकी शाशक |

सप्तम दिवस माँ कालरात्रि, पापी तुझसे भागे,
सेवक पे कृपा करना, जो ना पूजे वो अभागे |

अष्टम दिवस माँ महागौरी, श्वेतांबर धारिणी,
अंधकार को हरना माता, तू ही तो तारिणी |

नवम दिवस हे सिद्धिदात्री, कमलासन तू विराजे,
शंख, सुदर्शन, गदा, कमाल, माँ तुझसे ही तो साजे |

नौ रूपों में हे माँ दुर्गा, कृपा सदैव बरसाना,
पूजूँ तुझको, ध्याऊँ तुझको, सत्या मार्ग दिखलाना |

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

दौरा

एक गड्ढा
जो बहुत
दिनो से

बहुत लोगो को
गिरा रहा था
आज शाम
पी डबल्यू डी
की फौज द्वारा
भरा जा रहा था
सारे अफसरों के
हाथ में झाडू़
तक दिखाई
दे रहे थे
होट मिक्स
हो रहे थे
रोलर तक
चलाये दे
रहे थे
पब्लिक की
समझ में
कुछ नहीं
आ रहा था
जिसको देखो
वो कुछ ना कुछ
अंदाज लगा
रहा था
अरे कल
उत्तराखंड

का बर्थडे है
एक बता
रहा था
डी ऎम की
कार तक
बेटाईम

खड़ी थी
माल रोड पर
किसी से पूछा
तो पता चला
वो भी शहर में
चक्कर लगा
रहा था
इतने में
"मोतिया"
हंसता हुवा
आ रहा था

बड़े जोर
जोर से

ठहाके लगा
रहा था

पूछा तो
बोलता
जा रहा था

पागल मत
हो जाओ

गड्ढा ही तो
भरा जा रहा है
सालों को
पता भी नहीं
कल मुख्यमंत्री
बाय रोड
आ रहा है ।

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

एक राजा के लम्बे कान

धन्ना नाई की कहानी
मुझे मेरी माँ ने सुनाई थी
पेट में उसके कोई भी
बात नहीं पच पाती थी
निकल ही किसी तरह
कही भी आती थी
राजा ने बाल काटने
उसे बुलाया था
उसके लम्बे कान
गलती से वो देख आया था
बताने पर किसी को भी
उसे मार दिया जायेगा
ऎसा कह कर
उसे धमकाया था
पर बेचारा आदत का मारा
निगल नहीं पाया था
एक पेड़ के ठूँठ के सामने
सब उगल आया था
पेड़ की लकड़ी का तबला कभी
किसी ने बना के बजाया था
उसकी आवाज में राजा का
भेद भी निकल आया था
मेरी आदत भी उस नाई
की तरह ही हो जाती है
अपने आस पास के सच
देख कर भड़क जाती है
रोज तौबा करता हूँ कही
किसी को कुछ नहीं बताउंगा
सभी तो कर रहे हैं
करने दो मैं कौन सा
कद्दू में तीर मार ले जाउंगा
उस समय मैं अपने को
सबसे अलग सा
देखने लग जाता हूँ
सारे लोग बहुत सही
लगते हैं और मैं अकेला
जोकर हो जाता हूँ
एक राजा के दो लम्बे कान
तो बहुत पुराने हो गये
कहानी सुने भी मुझे
अपनी माँ से जमाने हो गये
आज रोज एक राजा
देख के आता हूँ
उसके लम्बे कानों को
भी हाथ लगाता हूँ
वहाँ कोई किसी को भाव
नहीं देता जान जाता हूँ
फिर रोज धन्ना नाई
की तरह कसम खाता हूँ
पर यहाँ आ कर तो
हल्ला मचाने में
बहुत मजा आता है
लगता है नक्कार खाने मे
तूती बजाने जैसे कोई जाता है
देखना ये है कि इस ठूंठ का
कोई कैसे तबला बना पाता है
फिर मेरे राजाओं के लम्बे लम्बे
कानो की खबर इकट्ठा कर
उनके कान भरने चला जाता है?

शिशु.


लो , अथाह भविष्य का एक निमिष
आ गया मेरे पास !
हाँ,आगत स्वयं बढ कर समा गया मेरी बाहों में !
*
यह शिशु,अपनी नन्ही मुट्ठियों मे ,
कसकर बाँधे है सारा भविष्य !
''मेरे शिशु ,क्या ले कर आए हो इस मुट्ठी में ?"
और मुंदी कली- सी अँगुलियाँ खोलना चाहती हूं ,
वह कस कर भींच लेता है !
*
हँस पढती हूं मैं -
कहाँ कोई देख पाया है आगत को ?
टक-टक देखता रहता है वह ,
अपनी गहन विचारपूर्ण दृष्टि से !
निस्पृह , निर्लिप्त , निर्दोष !
*
हमारी समझ से परे ,
रहस्यमय दृष्यों में खोया -
कभी रुआँसा ,कभी शान्त ,
कभी उज्ज्वल हँसी से आलोकित होता मुखमणडल!
*
और हम सारे काम - धन्धे छोड दौड पडते हैं ,
उस भुवन - मोहिनी मुस्कान को निहारने ,
उस दीप्त मुख के आनन्द-विभोर क्षण की आकांक्षा में !
*
जीवन को पढ़ने का ,मगन मन गढ़ने का ,
आगत को रचने के स्वर्णिम क्षण जीने का ,
मिला है अवसर -
लोरियाँ सुनाने का ,मुग्ध हँसी हँसने का !
*
हो जाऊँ चाहे अतीत ,
मै ही रहूंगी व्याप्त ,
अनगिन इन रूपों मे ,
सांसों मे सपनो मे !
*
मेरी ही चेतना की व्याप्ति यहाँ से वहाँ तक !
रोशनी का कण आँखों मे समा गया ,
जिसने उद्भासित कर दिया दिग् - दिगन्त को !
*
- प्रतिभा सक्सेना

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

मरने पर ........

मरने पर ........

जीते जी तीर्थ  न करवाये,

                       मरने पर संगम जाओगे
भर पेट खिलाया कभी नहीं,
                      पंडित को श्राद्ध खिलाओगे      
बस एक काम ही एसा है,
                      जो तब भी किया और अब भी किया,
जीते जी बहुत जलाया था,
                      मरने पर भी तो जलाओगे 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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