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मंगलवार, 29 नवंबर 2011

छा रहा इस देश पर कोहरा घना है

दिख हर आदमी कुछ अनमना है
छा रहा इस देश पर कोहरा घना है
व्यवस्थाएं देश की बिगड़ी पड़ी है
जिधर देखो,गड़बड़ी ही गड़बड़ी है
लूट कर के देश नेता भर रहे घर
बेईमानी और रिश्वत को लगे  पर
कोष का हर द्वार चाटा  दीमकों ने
नींव कुरदी,देश की कुछ मूषकों ने
दीवारें इस दुर्ग की पोली पड़ी है
कभी भी गिर पड़ेगी,ऐसे  खड़ी है
लग गया घुन बेईमानी का सभी को
देश सारा खोखला सा है तभी तो
हो गए हालात कुछ ऐसे बदलते
रत्न गर्भा धरा से  पत्थर निकलते
स्वर्ण चिड़िया कहाता था देश मेरे
कर लिया है उल्लूओं ने अब बसेरा
ढक लिया है सूर्य को कुछ बादलों ने
बहुत दल दल दिया फैला कुछ दलों ने
समझ ना आये हुई क्या गड़बड़ी है
लहलहाती फसल थी,उजड़ी पड़ी है
परेशां हर आदमी आता नज़र है
हो रहे इलाज सारे बेअसर  है
पतंगों की तरह बढ़ते दाम हर दिन
और सांसत में फसी है जान हर दिन
हो रहे निर्लिप्त सब इस खेल में है
थे कभी राजा,गए अब जेल में है
दिख रहा ईमान अब दम तोड़ता है
साधने को स्वार्थ हर एक दोड़ता है
त्रसित हर जन,कुलबुलाहट हो रही है
क्रांति  की अब सुगबुगाहट  हो रही है
देश ऐसी स्तिथि में आ खड़ा है
धुवाँ सा है,आग पर पर्दा   पड़ा  है
और भीतर से सुलगता  हर जना है
छा रहा इस देश पर कोहरा  घना है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

भगवती शांता परम सर्ग-5

भगवती शांता परम सर्ग-5

भाग-3
शांता और रिस्य-सृंग 
शांता थी गमगीन, खोकर काका को भली |
मौका मिला हसीन, लौटी चेहरे पर हंसी ||

सबने की तारीफ़, वीर रमण के दाँव की  | 
सहा बड़ी तकलीफ, मगर बचाई जान सब ||

राजा रानी आय, हालचाल लेकर गए |
करके सफल उपाय, वैद्य ठीक करते उसे ||

हुआ रमण का व्याह, नई नवेली दुल्हनी |
पूरी होती चाह, महल एक सुन्दर मिला ||

रहते दोनों भाय, माता बच्चे साथ में |
खुशियाँ पूरी छाय, पाले जग की परंपरा ||

मनसा रहा बनाय, रमण एक सप्ताह से |
सृन्गेश्वर को जाय, खोजे रहबर साधु को ||

शांता जानी बात, रूपा संग तैयार हो |
माँ को नहीं सुहात, कौला सौजा भी चलीं ||

दो रथ में सब बैठ, घोड़े भी संग में चले |
रही  शांता  ऐंठ, मेला  पूरा जो लगा ||

रही सोम को देख, चंपा बेटे से मिलीं |
मूंछों  की आरेख, बेटे की  लागे भली ||

बेटा  भी तैयार, महादेव के दर्श हित |
होता अश्व सवार, धीरे से निकले सभी ||

 नौकर-चाकर भेज, आगे आगे जा रहे |
 इंतजाम में तेज, सभी जरूरत पूरते ||

पहुंचे संध्या काल, सृन्गेश्वर को नमन कर |
डेरा देते डाल, अगले दिन दर्शन करें ||

सुबह-सुबह अस्नान,  सप्त-पोखरों में करें |
पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||

रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करे |
हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||

तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |
अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||

गई शांता झेंप, चितवन चंचल फिर चढ़ी |
मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||

ऋषिवर को परनाम, रूपा बोली हृदय से |
शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की ||

हाथ जोड़कर ठाढ़, हुई शांता फिर मगन |
वैचारिक यह बाढ़, वापस भागी शिविर में ||

पूजा लम्बी होय, रानी चंपा की इधर |
शिव को रही भिगोय, दुग्ध चढ़ाये विल्व पत्र ||

रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |
था दुपहर में भोज, विविन्डक आये  शिविर ||

गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |
मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||

बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |
बैठा साथे सोम, विविन्डक ऋषिराज के ||

संध्या  सारे जाँय, कोसी की पूजा करें |
शांता रही घुमाय, रूपा को ले साथ में ||

अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |
सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं ||

लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें ||
करके देख विचार, दाढ़ी लगती है बुरी ||

खट-पट करे खिडाव, देख सामने हैं खड़े |
छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||

शांता शान्ति छोड़, असमंजस में जा पड़ी |
जिभ्या चुप्पी तोड़, करती है प्रणाम फिर ||

मैं सृंगी हूँ जान, ऋषी राज के पुत्र को |
करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||

मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |
सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||

पिता बड़े विद्वान, मिले विरासत में मुझे |
उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी है बड़ी ||

कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रात दिन |
पूरे  कौन  सवाल, दुनिया के फिर करेगा ||

बदले दृष्टिकोण, रिस्य सृंग का प्रवचन |
बाहें रही मरोड़, हाथ जोड़ प्रणाम कर ||

लौटी रूपा देख, बढे सृंग आश्रम गए | 
अपनी जीवन रेख, शांता देखे ध्यान से ||

लौट शिविर में आय, अपने बिस्तर पर पड़ी |
कर कोशिश विसराय, सृंगी मुख भूले नहीं ||

जन्मदिन


आज मेरी प्यारी बहिन का जन्मदिन है और मैं बहुत खुश हूँ ,, मेरी तरह से उसे ढेरो शुभकामनाये ,,, कृपया आप भी अपना बहुमूल्य आशीर्वाद उसे प्रदान करें |

आज जन्मदिवस पर तेरे ,
ओ मेरी प्यारी बहिन
दुलार करते हैं सभी
प्यार करते हैं सभी

हजार ख्वाहिशें जुडी हैं
माँ पापा की तुझसे
रौशन है ये आँगन तुझसे
कह दे तू ये आज मुझसे
न दूर हो हम कभी भी
अब एक दूजे से

जफ़र पा ओ मेरी बहिन
घर जल्दी आना तू अबकी
आँखों का तारा हैं तू सबकी

तेरा सपना सच हो जाये
हर ख्वाहिश पूरी हो जाये
जन्मदिन पर मिले तुझे
सबका इतना आशीष
की हर बाला आने से
पहले ही टल जाये

जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो प्रीती .

- दीप्ति शर्मा
अंधविश्वास

हमारे देश में अंधविश्वास के कारण कितनी ही जाने चली जाती हैं /इन पंडित पुजारी के द्वारा  धर्म के नाम पर पाप पुण्य का डर दिखा कर हमारे देश की गरीब जनता को कितना लूटते है /और ये सिर्फ अच्छी अच्छी बातें बोलकर अपनी तिजोरी भरते हैं ./अभी हरिद्वार में गायत्री परिवार के यज्ञ समारोह में कितने ही लोग धुऐं की घुटन के कारण हुई भगदड़ में अपनी 

जान से हाथ धो बैठे और कितने ही घायल हो गए /ऐसे ही हमेशा कुम्भ या अर्धकुम्भ के समय कुछ ना कुछ हादसे ज्यादा भीड़ के कारण हो जाते हैं और कितने ही लोगों की जान चली जाती है /जिसमे बच्चों और औरतों की संख्या ज्यादा होती है /अब इसमे किसको कितना पुण्य मिल रहा है और कितना पाप यह तो ऊपरवाला ही जाने /परन्तु उसके बाद भी हमारे धर्म के ठेकेदार यह जरुर कहते हैं की आप ने भगवान् की भक्ति में कोई कमी की होगी इसीलिए आपके साथ ये हादसा हुआ है /अगर आप इतना दान -पुण्य और करेंगे तो आपका अगला जनम बहुत अच्छा गुजरेगा /इस जनम का 

तो पता नहीं अगले जनम की बात करते हैं या मोक्ष मिल जाने का आशा बांधते हैं / और पैसे लूट कर अपना ये जनम सुधारते है /और हमारी 
अनपढ़ गरीब जनता अपनी मेहनत की कमाई मोक्ष प्राप्त होने की आशा और अपना दूसरा जनम सुधारने की आशा में इन धर्म के ठेकेदारों के चरणों में अर्पित कर देती है / और कई बार अपनी जान से भी हाथ धो बैठती है /
पता नहीं इन धर्म के ठेकेदारों द्वारा फैलाये अन्धविस्वासों के कारण कई तरह की भ्रांतियां हमारे देश के अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग ढंग से फैली हुई हैं /कहीं छोटे -छोटे बच्चों को आधा जमीन के अंदर गाडा जाता है 

कहीं ऊपर  से फेंका जाता है ,कहीं बलि तक चदा दिया जाता है / और इसके खिलाफ कोई आवाज उठाने की कोशिश करे तो ये धर्म के ठेकेदार अपने स्वार्थ के कारण उसकी आवाज को साम.दाम.दंड के द्वारा दबा देते हैं /
अनपढ़ ही नहीं बल्कि पदे लिखे लोग भी साधू -संतों और गुरुओं के शिष्य बनकर उनके हाथों की कठपुतलियाँ बन जाते हैं और अपने अन्ध्विस्वास के कारण लाखों रुपया इन पर लूटाते हैं /और वो लोग बिना मेहनत किये  इन्हीं पैसों से एसो आराम की जिंदगी ब्यतीत करते  हैं / कब तक हमारे देश में लोग इन अन्ध्विस्वासों के कारण अपने लोगों की जान जोखिम में डालते रहेंगे /आज जब हमारे वैज्ञानिक चाँद पर और अंतरिक्ष में नई दुनिया बसा रहे हैं हम इन ढोंगी साधुओं की बातों में आ रहे हैं और उनको भगवान् बना रहे हैं /
जागो और देश के अनपढ़ ओर गरीब लोगों को भी जगाओ
और अपने देश में फैले इन  को अन्धविस्वासों को मिटाओ 

महा कुम्भ मेला    

भगवती शांता परम सर्ग-5

भगवती शांता परम सर्ग-5


भाग-2 
 सृंगी ऋषि,  कुल्लू घाटी
एवं 
सृन्गेश्वर महादेव, मधेपुरा


भगिनी विश्वामित्र की, सत्यवती था नाम |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||


दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||


वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||


सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||


उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||


असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब  आवे क्रोध ||


अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||


धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||

इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्ड़क हैं यही, विनती करते लोग |


उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||


इन्ही विविन्ड़क ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||


ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||


जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव |


लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
 कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||

अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक |


हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||


छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||


मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
वैज्ञानिक अति श्रेष्ठ ये, मिला पिता से बोध ||


नाहन के ही पास है, गुफा एक सिरमौर |
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||

सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी ऋषि ने था किया, भूमि शिवा को सौंप ||

सात पोखरों की धरा, सातोखर है नाम |
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||


अंगदेश का क्षेत्र यह, महिमामय अस्थान |
शांता-रूपा साथ माँ, आती करय परनाम ||

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