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रविवार, 10 फ़रवरी 2019

सरस्वती वंदना
 
वीणापाणि तुम्हारी वीणा मुझको स्वर दे 
नवजीवन उत्साह नया माँ मुझमे भर  दे 
पथ सुनसान,भटकता सा राही हूँ  मैं ,
ज्योति तुम्हारी ,निर्गमपथ ज्योतिर्मय कर दे 

घोटू 

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

 पैसे की दास्तान    

कल  बज रहा था एक गाना 
बहुत पुराना 
ओ जाने वाले बाबू ,एक पैसा दे दे 
तेरी जेब रहे ना खाली 
तेरी रोज मने दीवाली 
तू  हरदम मौज उड़ाए
कभी न दुःख पाए -एक पैसा दे दे 
एक पैसे का नाम सुन 
मेरी आँखों के आगे लौट आया बचपन 
जब था एक पैसे के मोटे से सिक्के का चलन
माँ  के पैर दबाने पर
या दादी की पीठ खुजाने पर 
हमें कई बार पारितोषिक के रूप में मिलता था ,
उगते सूरज की ताम्र आभा लिए 
एक पैसे का सिक्का ,
जब हाथ में आता था 
बड़ा मन भाता था 
हमें अमीर बना देता था 
ककड़ी वाला लम्बा गुब्बारा दिला देता था 
या नारंगी वाली मीठी गोली खिला देता था 
हमारे बड़े ठाठ हो जाते थे 
हम कभी आग लगा हुआ चूरन ,
या कभी चने की चाट खाते थे 
बचपन का वह बड़ा हसीन दौर होता था 
खुद खरीद कर खाने का ,
मजा ही कुछ और होता था 
वो एक पैसे का ताम्बे का सिक्का ,
हमें थोड़ी देर के लिए रईस बना देता था 
और उस दिन उत्सव मना देता था 
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया ,
पैसा छोटा होता गया 
और एक दिन किसी ने उसकी आत्मा ही छीन ली 
उसका दिल कहीं खो गया 
और वो एक छेद वाला पैसा हो गया   
जैसे जैसे उसकी क्रयशक्ति क्षीण होती गयी 
उसकी काया जीर्ण होती गयी 
और एक दिन वो इतना घट गया 
कि  माँ की बिंदिया जितना ,
एक नया पैसा बन कर सिमट गया 
पता नहीं जेब के किस कोने में खिसक जाता था 
गिर भी जाता तो नज़र नहीं आता था 
न उसमे खनक थी ,न रौनक थी,
और उसकी क्रयशक्ति भी हो गया था खात्मा  
ऐसा लगता था की बीते दिनों की याद कर ,
आंसू बहाती हुई है कोई दुखी आत्मा  
उसके भाई बहन भी आये जो 
दो,पांच और दस पैसे के चमकीले सिक्के थे 
पर मंहगाई की हवा में सब उड़ गए ,
क्योंकि वो बड़े हलके थे 
फिर चवन्नी गयी ,अठन्नी गयी ,
रूपये का सिक्का नाम मात्र को अस्तित्व में है ,
पर गरीब दुखी और कंगाल  है
अगर जमीन पर पड़ा भी मिल जाए 
तो लोग झुक कर उठाने की मेहनत नहीं करते ,
इतना बदहाल है 
अब तो भिखारी भी उसे लेने से मना कर देता है ,
उसे पांच या दस रूपये चाहिये 
बस एक भगवान के मंदिर में कोई छोटा बड़ा नहीं होता 
आप जो जी में आये वो चढ़ाइये
पैसे की हालत ये हो गयी है कि 
उसका अस्तित्व लोप हो गया है ,बस नाम ही कायम है 
कई बार यह सोच कर होता बड़ा गम है 
लोग कितने ही अमीर लखपति करोड़पति बन ,
पैसेवाले तो कहलायेंगे 
पर आप अगर उनके घर जाएंगे
तो शायद ही एक पैसे का कोई सिक्का पाएंगे 
उनके बच्चों ने कदाचित ही ,एक पैसे के
 ताम्बे के सिक्के की देखी  होगी शकल  
क्योंकि अपने पुरखों को कौन पूजता है आजकल
बस उनका 'सरनेम 'अपने नाम के साथ लगाते है 
वैसे ही लोग पैसा तो नहीं रखते ,
पर पैसेवाले कहलाते है 
वाह रे पैसे 
तूने भी बुजुर्गों की तरह ,
दिन देख लिए है कैसे कैसे 

मदन मोहन बाहेती ' घोटू '
 
      अरुण ज्योति मिलन उत्सव 
             पचासवीं वर्षगाँठ 
                   १  
दिवस आज का ख़ास है ,मन में है उल्लास  
अरुण ज्योति के मिलन को,बीते बरस पचास 
बीते बरस पचास ,सुखी रह कर मुस्काये 
 जीवन बगिया महकाई ,दो पुष्प  खिलाये 
प्यारी बेटी सोनू ,सोहना पुत्तर  आश्विन 
हंसी ख़ुशी बीते इनके जीवन का हर दिन 
                     २ 
बम्बई की कच्ची कली ,उज्जैन का मासूम 
दोनों ने मिल मचाई ,देखो कैसी  धूम  
देखो कैसी धूम ,सुखी परिवार बसाया 
मिली अरुण को ज्योति ,पूरा घर चमकाया 
कह घोटू कविराय बन गए अब भोपाली 
घूम फिर कर के मौज मनाते,शान निराली 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

साड़ी और जींस 
  १ 
सुन्दर,सादी सुखप्रदा साड़ी वस्त्र महान 
नारी जब पहने मिले  ,देवी  सा  सन्मान
देवी सा सन्मान ,बहुत उपयोगी ,प्यारी 
सर से ले एड़ी तक देह ढके है  सारी 
आँचल बने  रुमाल ,बाँध लो पल्ले पैसे  
 चादर सा ओढ़ो ,लटका लो परदा जैसे 
२ 
साड़ी गुणगाथा सुनी ,जल कर बोली जीन 
छह गज साड़ी पहनना ,होता बड़ा कठीन 
होता बड़ा कठीन ,पैर बस मुझमे  डालो 
उछलो, कूदो ,बाइक बैठो ,मौज उड़ा लो 
न तो प्रेस का झझट, ना मैं होती  मैली 
कटी फटी तो बन जाती फैशन अलबेली 
३ 
होता यदि मेरा चलन ,महाभारत के काल 
हार जुए में द्रोपदी ,ना  होती  बदहाल 
ना होती  बदहाल ,न कौरव कुछ कर पाते 
मैं होती तो चीर दुशासन क्या  हर पाते 
साड़ी हंस कर बोली ,फिर क्यों होता पंगा 
टांग जींस की खींच उसे कर देता  नंगा 
४ 
ऐसी हालत में जरा ,तुम्ही करो अंदाज 
भरी सभा में द्रोपदी की क्या बचती लाज 
की क्या बचती लाज ,कृष्ण भी क्या कर पाते 
बार बार वो उसे, जींस कब तक   पहनाते
ज्यों ज्यों साड़ी खिची ,कृष्ण ने चीर बढ़ाया 
पस्त दुःशासन ,लज्जित द्रोपदी कर ना पाया 


मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
            

सत्योत्तरवी वर्षगांठ पर 

जीर्ण तन अब ना रहा उतना जुझारू

किन्तु कोशिश कर रहा फिर भी सुधारूं 
 
जो भी मुझ में रह गयी थोड़ी कमी है 

सत्योत्तर का हो गया ये आदमी है 


जी रहा हूँ  जिंदगी  संघर्ष करता 

जो भी मिल जाता उसीमें हर्ष करता 

हरेक मौसम के थपेड़े सह चुका हूँ 

बाढ़ और तूफ़ान में भी बह चुका हूँ 

कंपकपाँती शीत  की ठिठुरन सही है 

जेठ की तपती जलन ,भूली नहीं है 

किया कितनी आपदा का सामना है 

तब कही ये जिस्म फौलादी बना  है 

पथ कठिन पर मंजिलों पर चढ़ रहा हूँ 

लक्ष्य पर अपने  निरन्तर ,बढ़ रहा हूँ 

और ना रफ़्तार कुछ मेरी थमी है 

सत्योत्तर  का हो गया ये आदमी है 


कभी दुःख में ,कभी सुख में,वक़्त काटा 

मिला जो भी,उसे जी भर,प्यार बांटा 

राह में बिखरे हुए,कांटे, बुहारे 

मिले पत्थर और रोड़े ,ना डिगा रे 

सीढ़ियां उन पत्थरों को चुन,बनाली 

और मैंने सफलता की राह पा ली 

चला एकाकी ,जुड़े साथी सभी थे 

बनगए अब दोस्तजो दुश्मन कभी थे 

प्रेम सेवाभाव में तल्लीन होकर 

प्रभु की आराधना में ,लीन  होकर 

जुड़ा है,भूली नहीं अपनी जमीं है 

सत्योत्तर का हो गया ये आदमी है 


किया अपने कर्म में विश्वास मैंने 

किया सेवा धर्म में  विश्वास मैंने 

बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव रख कर 

दोस्ती जिससे भी की,पहले परखकर 

प्रेम,ममता ,स्नेह ,छोटों  पर लुटाया 

लगा कर जी जान सबके काम आया

सभी के प्रति हृदय में सदभावना है  

सभी की आशीष है ,शुभकामना है 

चाहता हूँ जब तलक दम में मेरे दम 

मेरी जिंदादिली मुझमे रहे कायम 

काम में और राम में काया  रमी है 

सत्योत्तर का हो गया ये आदमी है 



मदन मोहन बाहेती 'घोटू

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