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शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

बदलाव 

तुम कहती हो मैं बदल गया ,बदलाव प्रकृति का नियम है 
बच्चे,जवान और फिर बूढ़े, होकर के बदला करते हम  है 
सरदी गरमी और फिर बरखा ,ऋतू बदल बदल कर आती है 
ठंडी बयार  बासंती से ,लू का झोंका बन जाती है 
चंद्र कलाएं निश  दिन ही ,अम्बर में बदला करती है 
और नदियों के उज्जवल जल को ,बारिश आ गंदला करती है 
कच्ची अमिया बनती अचार ,या पक्ति आम रसीला बन 
महकाती गुलशन विकसित हो,जब कैलियों पर आता यौवन 
बनता गुलाब का इत्र कभी,गुलकंद कभी बन जाता है 
करती रसपान मधुमख्खी,छत्ता रस से भर जाता  है 
छत्ता बन माँ ,शमा बनता ,हर चीज बदलती बहुतेरी 
कंचन काया का अंत सदा ,होता है एक राख  ढेरी 
 परिवर्तनशील सदा जीवन ,हर चीज बदलती क्षण क्षण है 
तुम कहती हो मैं बदल गया ,बदलाव प्रकृति का नियम है 

घोटू 
  

प्रीतम तुम कितना बदल गए 

प्रीतम तुम कितना बदल गए 

पहले जब ऑफिस से आते थे 
मेरे काम में कितना हाथ  बटाते थे 
कभी मैथी साफ़ कर दिया करते थे ,
कभी मटर छिलवाते थे 
पर जब से तुम हुए हो रिटायर 
काम नहीं करते हो रत्ती भर 
मटरगश्ती तो करते रहते हो दिन भर 
पर क्या छिलवाते हो मटर ?
परसों ,मैं प्रिजर्व करने के लिए ,
पंद्रह किलो मटर थी लाइ 
पर तुमने एक फली भी नहीं छिलवाई 
मैंने बुलाया तो बोले 
डिस्टर्ब मत करो,
मैं शेयर के इन्वेस्टमेंट में हूँ व्यस्त 
और मैंने ही अकेले सारे मटर छीले 
हो गयी पस्त 
तुमने ये भी नहीं सोचा ,
इतने मटर का प्रिजर्वेशन भी,
एक तरह का इन्वेस्टमेंट है 
इससे ,सस्ते दामों पर ,
साल भर,ताजे मटरों  का ,
हो जाता अरेंजमेंट है 
ये भी कोई बात हुई ,
की साल भर तक तो ,
मटर पनीर की सब्जी ,
चटखारे ले लेकर खाओगे 
पर आज मेरे मटर नहीं छिलवाओगे 
अच्छा मटर की छोडो ,
घर में कितने इकट्ठे हो गए है रद्दी अखबार 
तुमसे कह चुकी हूँ कितनी बार 
इनको रद्दीवाले को अगर बेच आएंगे 
घर की जगह भी साफ़ होगी ,
और चार पैसे भी हाथ आएंगे 
पर आपके कान में जूँ भी नहीं रेंग पाई है 
अरे ये तो तुम्हारी ऊपरी कमाई है 
पहले अचार भी डलवाते थे 
केरी कटवाते थे 
मसाला मिलवाते थे 
मैं जो कहती मानते थे 
मेरे आगे दम हिलाते थे 
पर जब से रिटायर हुए हो,
तुममे आलस छा गया है 
कुछ करते धरती नहीं ,
तुम में निठल्लापन आ गया है 
पहले हर काम करने को रहते थे तत्पर 
अब टीवी देखते हुए ,
दिन भर पड़े रहते हो घर पर 
न कोई जोश है ,न उमंग है 
अरे क्या ये भी कोई जीने का ढंग है 
न वेलेंटाइन पर गुलाब लाते हो 
न कभी होटल में खिलाते हो 
तुम्हारा ध्यान मेरी ओर से हटने लगा है 
तुम्हारा प्यार आजकल घटने लगा है  
कितने दिनों से मुझे ,दिखाने नहीं पिक्चर गए हो 
प्रीतम ,तुम कितने बदल गए हो 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
शादी के बाद -बदलते परिदृश्य 

पहले वर्ष 

पति जब कहता 
सुनती हो जी ,प्यास लगी है 
पत्नी झट ले आयी पानी
 पति ने बोला मेरी रानी 
पानी तो था एक बहाना 
तुम्हे था अपने  पास बुलाना 
अब तुम आ गयी हो पास 
तुम्ही बुझादो ,मेरी प्यास 

दूसरे वर्ष 

पति जब कहता 
सुनती हो जी प्यास लगी है 
पत्नी कहती ,रुकिए थोड़ा लाती हूँ  जी 
ठंडा पानी ,या फिर सादा पिओगे जी 
पति कहता कैसा भी ला दो ,
हाथ तुम्हारा जब लगता है 
तुम्हारे हाथों से लाया ,
पानी भी अमृत लगता है 

पांच वर्ष के बाद 

पति जब कहता 
सुनती हो जी ,प्यास लगी है 
पत्नी कहती, अभी व्यस्त हूँ 
आज सुबह से ,लगी काम में ,
हुई पस्त हूँ 
खुद ही जाकर 
फ्रिज से लेकर 
पानी पीकर ,प्यास बुझालो 
हाथ पैर भी जरा हिला लो 
कोई बहाना ,नहीं बनाना 
और सुनो ,एक गिलास पानी,
मुझको भी देकर के जाना 

दस वर्ष बाद 

पति जब कहता ,
सुनती हो जी ,प्यास लगी है 
पत्नी कहती ,
अगर प्यास लगी है 
तो मै क्या करू
घर भर के सारे काम के लिए 
मै ही क्यों खटू ,मरू 
तुम इतने निट्ठल्ले हो गए हो 
रत्ती भर काम नहीं किया जाता 
अपने हाथ से पानी भी 
भर कर नहीं पिया जाता 
जरा हाथ पाँव हिलाओ ,
और आलस छोड़ कर जी लो 
खुद उठ कर जाओ 
और पानी पी लो 
 
पंद्रह वर्ष बाद 

पति कहता है 
सुनती हो जी,,प्यास लगी है 
पत्नी कहती ,हाँ सुन रही हूँ 
कोई बहरी नहीं हूँ 
तुम्हारी रोज रोज की फरमाइशें 
सुनते सुनते गयी हूँ थक 
इसलिए तुम्हारे सिरहाने ,
पानी से भरा जग 
दिया है रख 
जब प्यास लगे,पी लिया करो 
यूं मुझे बार बार आवाज देकर 
तंग मत किया करो 

पचीस वर्ष बाद 

पति कहता है ,
सुनती हो जी,प्यास लगी है ,
पत्नी कहती ,
आती हूँ जी 
कल से आपको खांसी हो रही है 
पानी को थोड़ा कुनकुना करके 
लाती हूँ जी 

पचास वर्ष बाद 

पति कहता है 
सुनती हो जी ,प्यास लगी थी 
मैं खुद तो ,रसोई में जाकर ,
हूँ पी आया 
प्यास लगी होगी तुमको भी ,,
दर्द तुम्हारे घुटनो में है ,
इसीलिये तुम्हारे खातिर ,
एक गिलास भर कर ले आया

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'  

खल्वाट पति से 

बाकी ठीक ,मगर क्यों ऐसा ,बदला हाल तुम्हारा प्रीतम 
दिल तो मालामाल मगर क्यों ,सर कंगाल तुम्हारा प्रीतम 

मुझे चाँद सी मेहबूबा कह ,तुमने मख्खन बहुत लगाया 
ऐसा सर पर मुझे बिठाया ,सर पर चाँद उतर है आया 
चंदा जब चमका करता है ,आता ख्याल तुम्हारा प्रीतम 
दिल तो मालामाल मगर क्यों ,सर कंगाल तुम्हारा प्रीतम 

दूज ,तीज हो चाहे अमावस ,तुम हो रोशन ,मेरे मन में 
चटक चांदनी से  बरसाते ,प्रेम सुधा  मेरे जीवन   में 
नज़रें फिसल फिसल जाती लख ,चिकना भाल तुम्हारा प्रीतम 
दिल तो मालामाल मगर क्यों ,सर कंगाल तुम्हारा प्रीतम 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
परिधान से फैशन तक 

एक वस्त्र से ढक खुद को ,निज लाज बचती थी नारी 
ढक लेता था काया सारी ,वह वस्त्र कहाता था साड़ी 
कालांतर में होकर विभक्त ,वह वस्त्र एक ना रह पाया 
जो बना पयोधर का रक्षक,वह भाग कंचुकी कहलाया 
और दूजा भाग ढका जिसने ,लेकर नितम्ब से एड़ी तक 
उसने ना जाने कितने ही है रूप बदल डाले   अब तक 
कोई उसको कहता लहंगा ,वह कभी घाघरा बन डोले 
कहता है पेटीकोट कोई ,सलवार कोई  उसको बोले 
वो सुकड़ा ,चूड़ी दार हुआ ,ढीला तो बना शरारा वो 
कुछ ऊंचा ,तो स्कर्ट बना ,'प्लाज़ो'बन लगता प्यारा वो 
कुछ बंधा रेशमी नाड़े से ,कुछ कसा इलास्टिक बंधन में 
बन 'हॉट पेन्ट 'स्कर्ट मिनी',थी आग लगा दी  फैशन में 
ऊपर वाला वह अधोवस्त्र ,कंचुकी से 'चोली'बन बैठा 
फिर टॉप बना ,कुर्ती नीचे ,'ब्रा'बन कर इठलाया,ऐंठा 
उस एक वस्त्र ने साड़ी के,कट ,सिल कर इतने रूप धरे 
धारण करके ये परिधान ,नारी का रूप  नित्य  निखरे 
पहले तन को ढकता था अब ,ढकता कम ,दिखलाता ज्यादा 
फैशन मारी अब रोज रोज ,है एक्सपोज को आमादा 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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