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शुक्रवार, 3 मार्च 2017

      तक़दीर वाली बीबी


हर किसी को नहीं होता ,इस तरह का सुख मयस्सर
मिला ऐसा पति तुमको ,ये तुम्हारा  है  मुकद्दर
तुम्हारा आदेश माने ,तुम्हारे आधीन हो जो
उँगलियों पर नाचने की कला में परवीन हो जो
तुम्हारी भृकुटी तने तो काँप जाए जो बिचारा
रात दिन सच्ची लगन से ,ख्याल रखता हो तुम्हारा
गृहस्थी के धर्म सारे ,ठीक से जो निभाता हो
होटलों में खिलाता हो ,खूब शॉपिंग कराता हो 
गाय सा सीधा सरल हो,फुर्तीला हो रंगीला
तुम्हारी फरमाइशों पर , करे झट से जेब ढीला
तुम्हारी हर भंगिमा को ठीक से पहचानता हो
समझता देवी तुम्हे हो,दास खुद को मानता हो
इस तरह का समर्पित पति ,अगर पाया आज तुमने
किया होगा मोतियों का दान कुछ पिछले जनम में
वरना सुनते आजकल तो ,कर दिए है बन्द  खुदा ने
इस तरह के आज्ञाकारी ,समर्पित पति  बनाने

घोटू
बुरी गत देखली

केश उजले ,झुर्राया तन ,ऐसी हालत देखली
पिलपिलाये चेहरे की,पीली रंगत   देखली
नरम है और पक गया पर स्वाद मीठा आम है,
चखोगे तो ये लगेगा ,तुमने  जन्नत देखली
कभी इस पर भी बहारों का नशा था,नूर था,
वक़्त ने जब सितम ढाया ,ये मुसीबत देखली
महकते थे गुलाबों से ,बन गए गुलकन्द अब ,
स्वाद ना,तुमने तो बस,बदली सी सूरत देखली
आपकी रुसवाई ने इस दिलके टुकड़े कर दिए,
हमने जीते जी हमारी ,ये बुरी गत देखली

घोटू
निकम्मे कबूतर

उठ कर सुबह सुबह जो उड़ते थे दूर तक,
जाते थे रोज रोज ही ,दाना  तलाशने
टोली में दोस्तों की ,विचरते थे हवा में,
रहते है घुसे घर में अब वो आलसी बने
लोगों ने जब से कर दिए ,दाने बिखेरने ,
आंगन में पुण्य वास्ते,लेकर धरम का नाम
तबसे निकम्मे हो गए कितने ही कबूतर ,
चुगते है दाना मुफ्त का ,हर रोज सुबहशाम
दाना चुगा ,मुंडेर पर ,जाकर पसर गए ,
कुछ देर कबूतरनी के संग ,गुटरगूँ किया
जबसे है मुफ्तखोरी का ,चस्का ये लग गया ,
जीने का उनने अपना तरीका बदल दिया
खाते है जहाँ वहीँ पर फैलाते  गन्दगी ,
वो इस तरह के हो गए ,आराम तलब है
तुमने कमाया पुण्य कुछ दाने बिखेर के ,
उनकी नस्ल पे जुल्म मगर ढाया गजब है

घोटू

सास बहू का रिश्ता

सास ऐसी कौन सी है ,जो बहू से तंग ना हो
रहना ही पड़ता है दबके ,कितनी ही दबंग ना हो
सास की नज़रें बहू में ,सदा कमियां खोजती है
बहू  जो भी सोचती है ,सास  उल्टा सोचती है
इसलिए उनका समन्वय ,बना करता मुश्किलों से
साथ रहती पर अधिकतर ,जुड़ नहीं पाती दिलों से
कौन बेटा ,चढ़ा  जिस पर,बीबीजी का रंग ना  हो
  सास ऐसी  कौन सी है,जो बहू से  तंग ना हो
पडोसी सत्संग में जब ,मिला करती कई सासें
बहुओं की करके बुराई ,निकाला करती  भड़ासे
सिखाती बेटी को कैसे ,सास रखना नियंत्रण में
वो ही यदि जो बहू करती ,आग लगती तनबदन में
काम करने का बहू को ,आता कोई ढंग ना हो
सास ऐसी कौन सी है , जो बहू से तंग ना हो
बात में हर एक निज,गुजरा जमाना ढूंढती हो
 जासूसी करने बहू की,नज़र जिसकी घूमती हो
सोचती है बहू ने आ ,छीन उससे लिया  बेटा
मगर फिर उस ही बहू से ,चाहती है जने  बेटा
दादी बनने की हृदय में ,जिसके ये उमंग ना हो
सास ऐसी कौन सी है ,जो बहू से  तंग ना हो

घोटू
बदलता मौसम

लगता है मौसम बदलने लगा है
समय धीरे धीरे ,फिसलने लगा है
दिनों दिन जवानी ,अब ढल सी गयी है
उमर हाथ से अब , निकल  सी गयी है
कभी हौसला था ,इशक में तुम्हारे
ला दूं तुम्हे , तोड़  कर  चाँद  तारे
मगर वक़्त ने यूं ,कमर तोड़ दी है
हमने वो अपनी ,जिदें छोड़ दी  है
पुरानी सब आदत,बदल सी गयी है
उमर हाथ से अब निकल सी गयी है
कभी होते थे दिन ,उमंगों के ऐसे
उडा करते थे हम, पतंगों के  जैसे
मगर बाल सर से अब उड़ने लगे  है
हक़ीक़त से जीवन की ,जुड़ने लगे है
आने लगी अब ,अकल सी गयी है
उमर हाथ से अब,निकल सी गयी है
बहुत याद आती है ,जवानी की बातें
थे चांदी से दिन और सोने सी  रातें
बुढापे में ये मन ,कसकने लगा है
झुर्राया तन हम पे ,हंसने लगा है
मुरझा ,चमकती ,शकल सी गयी है
उमर हाथ से अब ,निकल सी गयी है

घोटू

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