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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

वेलेंटाइन डे के बाद

       वेलेंटाइन डे के बाद

चेहरा हसीन ,बातों में मिश्री घुली हुई,
         लम्बी सी लिस्ट ,दोस्तों की उनने जोड़ ली
अबके से वेलेंटाइन पर ,इतने मिले गुलाब ,
         अब्बू ने उनके ,फूलों की दूकान खोल ली

घोटू

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

फ़िक्र

              फ़िक्र

फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है
जिसके लब पर,भूलेभटके ,कभी तुम्हारा  जिक्र  नहीं है
टुकड़ा दिल का ,निभा रहा है ,बस ऐसे संतान धर्म वह
हैप्पी होली या दिवाली,या फिर हैप्पी जन्मदिवस  कह
तुम्हारे ,दुःख ,पीड़ा,चिंता ,बिमारी का ख्याल नहीं है
तुम कैसे हो,किस हालत में ,कभी पूछता ,हाल नहीं है
आत्म केंद्रित इतना है सब रिश्ते नाते भुला दिए है
जिसने अपनी ,जननी तक को ,सौ सौ आंसूं रुला दिए है
कहने को है अंश तुम्हारा ,पर लगता है बदला,बदला
या फिर तुमसे ,पूर्व जन्म का,लेता है शायद वो बदला
भूल गया सब रिश्ते नाते ,बस  मैं हूँ और मेरी मुनिया
दिन भर व्यस्त कमाई करने में सिमटी है उसकी दुनिया
इतना ज्यादा ,हुआ नास्तिक,ईश्वर में विश्वास नहीं है
अहम ,इस तरह ,उस पर हाबी ,जो वो सोचे ,वही सही है
आ जायेगी ,कभी सुबुद्धि ,बैठे हो तुम आस लगाये
कोई उसको क्या समझाए ,जो कि समझना कुछ ना चाहे
तुम कितनी ही कोशिश करलो,उसको पड़ता फर्क नहीं है
फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी ,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

गुमसुम गुमसुम प्यार

         गुमसुम गुमसुम प्यार

जीवन की भागभागी में,गुमसुम गुमसुम प्यार हो गया
एक साल में एकगुलाब बस ,यही प्यार व्यवहार हो गया
कहाँ गयी  वो  छेडा  छेङी , वो मदमाते ,रिश्ते चंचल
कभी रूठना,कभी मनाना ,कहाँ गई  वो मान मनौव्वल 
वो छुपछुप कर मिलनाजुलना ,बना बना कर ,कई बहाने
चोरी चोरी ,ताका झाँकी ,का अब मज़ा कोई ना जाने
एक कार्ड और चॉकलेट बस,यही प्यार उपहार हो गया
जीवन की भागा भागी में ,गुमसुम गुमसुम प्यार होगया
नहीं रात को तारे गिनना,नहीं प्रिया, प्रियतम के सपने
सब के सब ,दिन रात व्यस्त है, फ़िक्र कॅरियर की ले अपने
एक लक्ष्य है ,बस धन अर्जन ,शीघ्र कमा सकते हो जितना
करे प्यार की चुहलबाज़ियाँ ,किसके पास वक़्त है इतना
प्यार ,नित्यक्रम ,भूख मिटाने को तन की,व्यवहार हो गया
जीवन की भागा भागी में,गुमसुम गुमसुम प्यार  हो गया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अपना अपना नज़रिया

        अपना अपना नज़रिया

सूरज अपने पूर्ण यौवन पर था,
रोशनी बरसा रहा था
तभी एक मुंहजोर बादल ने ,
उसे ढक  लिया
धूप ,घबरा कर ,ऐसे छुप गयी ,
जैसे अपने प्रेमी संग ,
खुलेआम ,रंगरेलियां मनाते हुए ,
पुलिस ने पकड़ लिया
एक मनचला बोला ,
ऐसा लगता है जैसे ,
किसी रूपसी प्रेयसी को ,
उसके प्रेमी ने  बाहों में कस लिया है
मुझे लगा कि किसी ,
परोपकार करते हुए ,सज्जन पुरुष को,
अराजक तत्वों के,
 तक्षक ने  डस लिया है
दार्शनिक ने कहा ,
जैसे जीवन में सुख दुःख ,
हमेशा आते ही रहते है
उसी तरह ,हर चमकते सूर्य पर ,
बादल छाते ही रहते है
झगड़ालू बोला,
इस बादल ने मेरे घर में आते,
प्रकाश को अवरुद्ध किया है
यह कार्य ,मेरे मौलिक अधिकारों के ,
विरुद्ध किया है
पसीने में तरबतर राही को,
थोड़ी सी छाँव मिली ,
तो आनंद की प्रतीति हुई
किसी बावरे कवि को,
बादल की कगारों  से निकलती ,
रश्मियों को देख कर ,
कंचुकी में से झांकते ,
यौवन की अनुभूती हुई
ये भी हो सकता है  कि संध्या ने ,
अपने प्रिय को जल्दी बुलाने के लिए ,
प्रेम की पाती लिख कर,
भेजा संदेशा है
या सूर्यलोक के सफाई कर्मियों ने ,
समय पर तनख्वाह न मिलने पर,
ढेर सा कचरा ,सूरज पर फेंक दिया ,
मुझे ऐसा अंदेशा है
ये भी हो सकता है कि ,
सूर्य के तेज से घबरा कर,विरोधी दल,
उसे काले झंडे दिखा रहे हो
और अपने अस्तित्व का ,
आभास करवा रहे हो
तभी केजरीवाल ने ,
प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलवा कर बयान  दिया,
ये केंद्र सरकार ,
बार बार बादलों को भेज कर ,
मेरे चमकीले कार्यों को ,
ढांकना चाहती है ,
इसलिए मैं राष्ट्रपति जी को ज्ञापन दूंगा
कि आसमान का प्रशासन भी ,
मुझे सौंप दिया जाय ,
मै इसे दो दिन में ,ठीक कर दूंगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 


प्यार अगर हो तो जैसे दिल-जिस्म का...


प्यार,
अगर हो तो
हो चौबीसों घंटे का
हो पूरे महीने का
हो पूरे साल का
हो जीवनभर का,
जैसे होता है
दिल और जिस्म का...
जिस्म रहता है 
हमेशा संभाले हुए दिल को
फूल की तरह,
और दिल
चलता रहता है
धड़कता रहता है
हमेशा-हमेशा
जिस्म के लिये...
रिश्ता खत्म
प्यार खत्म
तो समझो
खेल खत्म...

हैप्पी वैलेंटाइंस डे

- विशाल चर्चित

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

पिचत्तरवें जन्मदिवस पर

   पिचत्तरवें जन्मदिवस पर

वर्ष  चौहत्तर  ऐसे  काटे
मैंने सबके सुखदुख बांटे
कुछ मित्र मिले थे अनजाने
कुछ अपने, निकले बेगाने
कोई से मन के मिले तार
कोई अपनो की पडी मार
जब थका  किसी ने दुलराया
कोई ने ढाढ़स  बंधवाया
कोई ने कर तारिफ़ जब तब
साधे अपने अपने  मतलब
कोई ने खोटी खरी  कही
मैंने हंस कर हर बात सही
कुछ रिश्तेदारी,कुछ रस्मे
कुछ झूंठे वादे ,कुछ कसमे
कुछ आलोचक तो कुछ तटस्थ
बस,यूं ही सबने रखा व्यस्त
माँ ने ममता का निर्झर बन
बरसाई आशीषें ,हर क्षण
थे प्यार लुटाते ,भाई बहन
तो दिया पिता ने अनुशासन
सहचरी ,सौम्या मिली प्रिया
जिसने हर पल पल साथ दिया
अपने में खुश सन्तान पक्ष
इच्छित सबको मिल गया लक्ष
है  आशीर्वाद साथ  माँ का
और मित्रों की शुभ आकांक्षा
ये ही मेरी संचित पूँजी
इससे बढ़ दौलत ना दूजी
जीवन गाडी, कट रहा सफ़र
चूं चरर मरर ,चूं चरर मरर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'


खो दिए फिर हमने वीर

देश की शान के लिए खड़े जो,
हर मुश्किल में रहे अड़े जो,
मौत से हारे वो आखीर,
खो दिए फिर हमने वीर ।

मातृभूमि की लाज के लिए,
लड़ते रहे जो जीवन भर,
अमन-चैन के लिए जिये वो,
कभी नहीं उन्हे लगा था डर ।

प्रकृति से हार गए वो,
जीवन अपना वार गए वो,
चले तोड़ जीवन जंजीर,
खो दिए फिर हमने वीर ।

कभी हैं छल से मारे जाते,
कभी अपनो से धोखा खाते,
आतंक को धूल सदैव चटाया,
कर्तव्य को पर नहीं भुलाते ।

अश्रुपूरित हर नेत्र है आज,
देश की पूरी एक आवाज,
श्रद्धा सुमन अर्पित बलबीर,
खो दिए फिर हमने वीर ।

-प्रदीप कुमार साहनी

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

प्रिये क्यों

तनिक विलंब जो हुई है हमसे,
मुख मंडल यूँ क्षीण प्रिये क्यों,
अति लघु सी एक बात पे तेरे,
नैन यूँ तेज विहीन प्रिये क्यों ?

प्रेम प्रतीक्षा का सुख हमने,
भोग लिया है आज परस्पर,
जैसे तुम अधीर यहाँ थी,
मैं भी न धरा धीर निरंतर ।

मधुर मिलन की इस बेला में,
मन ऐसे मलीन प्रिये क्यों,
सुखदायक क्षण में ऐसे यूँ,
हृदय ये ऐसा दीन प्रिये क्यों ?

आलिंगन आतुर भुज दोनो,
मौन मनोरथ में हैं लागे,
अभिलाषा तेरी भी ऐसी,
क्यों न फिर आडंबर भागे ?

अधर हैं उत्सुक, करें समर्पण,
पद तेरे गतिहीन प्रिये क्यों ?
हृदय दोऊ हैं एक से आकुल,
अब भी लाज अधीन प्रिये क्यों ?

नयन भाव विनिमय को बेकल,
अधर सुस्थिर क्या है माया,
तू मुझमे निहित प्रिये है,
और मुझमे तेरी ही छाया ।

श्वास मध्य न भिन्न पवन हो,
प्रेम में न हो लीन प्रिये क्यों,
अंतर्मन भी एक हो चले,
खो न हो तल्लीन प्रिये क्यों ?

-प्रदीप कुमार साहनी

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

वीर लड़ाका तुझे नमन है

(6 दिन बर्फ के नीचे दबे होने के बाद भी मृत्यु को मात देने वाले वीर हनुमान थाप्पा और तमाम सिपाहियों को समर्पित रचना । साथ ही उनकी सकुशलता की कामना भी ।)

हे वीर लड़ाका तुझे नमन है,
लाल भारती तुझे नमन है ।

हर मुश्किल से लड़ लेते हो,
शौर्य सहित सब सह लेते हो ।
दुश्मन को हुँकार दिखाते,
कैसी भी दशा में रह लेते हो ।

युद्ध स्थल ही तेरा चमन है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।

दुश्मन से हो देश बचाना,
या बाढ़ से हमे बचाना,
प्राकृतिक विपदा हो कोई,
तुझको बस आता है बचाना ।

तुझसे ही फैला ये अमन है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।


है आतंक से लोहा लेते,
सीमा पर भी सुरक्षा देते,
बर्फीले धरती पर भी तो,
भारत माँ की लाज बचाते ।

वतन परस्ती तेरा लगन है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।

अपना सुख तुझे याद कहाँ है,
जोखिम से भरा तेरा जहाँ है,
भारत को परिवार बनाया,
परिजन को भी त्यागा यहाँ है ।

न्योच्छावर तूने किया जनम है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।

-प्रदीप कुमार साहनी

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

आहट


घने कोहरे में बादलों की आहट
तैरती यादों को बरसा रही है
देखो महसूस करो
किसी अपने के होने को
तो आहटें संवाद करेंगी
फिर ये मौन टूटेगा ही
जब धरती भीग जायेगी
तब ये बारिश नहीं कहलायेगी
तब मुझे ये तुम्हारी आहटों की संरचना सी प्रतीत होगी
और मेरा मौन आहटों में
मुखरित हो जायेगा।

© दीप्ति शर्मा

शायरी अगर है करनी, प्यार कर लो

शायरी अगर है करनी, प्यार कर लो,
शिद्दत से हुश्न-ए-दीदार कर लो ।

महबूब को पहले दिल से परख लो,
दिल तोड़ने की शर्त खुद ही रख लो ।

ये ईश्क मुआ ऐसा, सबकुछ करा देगा,
कामयाब न हो पर शायर बना देगा ।

आँखों पे उसकी शायरी करो तुम पूरी,
पुल बाँधों तारीफ के, ये पाठ है जरुरी ।

मिलन पे लिखो और लिखो जब जुदाई,
हर अदा पे लिखो, लिखो जब ले अँगड़ाई ।

कलम में तेरे उस वक्त आयेगा धार,
दिल टूट जायेगा, तब शायरी में निखार ।

फिर क्या, शायरी की तब आयेगी बाढ़,
हर लफ्ज होगा तेज, हर पंक्ति होगी गाढ़ ।

टूटा हुआ ये दिल इस कदर सदा देगा,
हर लफ्ज बनेगी शायरी जब यार दगा देगा ।

बेवफाई और दर्द पे करो नज्म का ईरादा,
आह पे, कराह पे वाह वाह होगी ज्यादा ।

सनम न रहे पर शायर होगे तब पूरे,
दिल के जज्बात लिखो, रह गए जो अधूरे ।

मुकम्मल ईश्क न मिला, तो शायरी ही करो,
मुशायरे की बढ़ाओ शान और डायरी ही भरो ।

शायरी अगर है करनी तो ये नुस्खा है नायाब,
चुन ही लो महबूब को, ईश्क करो जनाब ।

प्रदीप कुमार साहनी

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

पुनर्वावलोकन -अब तक की जिंदगी का

     पुनर्वावलोकन  -अब तक की जिंदगी का 

१९४२ में,जब मैं पैदा हुआ था,
अंग्रेजों भारत छोडो का नारा गूँज रहा था
और जब मैं पांच वर्ष का हुआ और
मैंने बचपना और जिद करना छोड़ दिया ,
अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया
पर फिर कुछ ऐसा हुआ ,
कि देश के लोगों की जीवन पद्धति ने
एक नया मोड़ लिया
पुरानी मान्यताएं बदलने लगी
संस्कृति सिसकने लगी
पश्चिम की हवाओं ने वातावरण को
दूषित कर डाला
हमारी सोच को कलुषित कर डाला
पहले भले ही हम आजाद नहीं थे,
व्यवस्थाएं अनुशासित रही थी
रोज रोज के आंदोलन और हड़तालों से,
ग्रसित नहीं थी
आज कोंक्रीट के उगे हुए जंगलों को जब देखता हूँ,
तो याद आती है वो हरियाली ,
वो हरेभरे वृक्ष जो शीतल हवाएँ बरसाते थे
वातावरण को खुशनुमा बनाते थे
जब बोतलों में बिकता हुआ पानी देखता हूँ ,
तो कुवें से निकाला गया वो ताज़ा  जल याद आता है ,
जो कपडे से छन कर स्वच्छ हो जाता था
मिट्टी के घड़ों में संचयित कर ,
दिन भर पिया और पिलाया जाता था
अरे उन दिनों मटके रखने की जगह ,
'पिरण्डे ' को भी पूजा जाता था
लोग गर्मियों में प्याऊ लगवा कर ,
मुफ्त प्यासों की प्यास बुझा कर पुण्य कमाते थे
बढे हुए प्रदूषण को देख कर ,
याद आते है बचपन के वो दिन
जब आसमान का नीला रंग ,
स्पष्ट दमकता था
और आकाश में उगते हुए तारों को,
एक एक कर गिना जा सकता था
बिजली के प्रकाश से उज्ज्वलित
सड़के और घरों को देख कर याद आती है
उन टिमटिमाते दियों  और लालटेनों की ,
जो अँधियारे घरों को ,प्रकाशमान करते थे
और सर्दियों में ,पूरे परिवार के लोग,
अंगीठी के आसपास बैठ,
मूंगफलियां खाया करते थे
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब खाना बनाते वक़्त ,
माँ,पहली रोटी गाय के लिए बनाती थी
और बचे खुचे आटे से,
कुत्ते की रोटी बनाई जाती थी
बासी खाना खाया  नहीं जाता था
और रसोईघर को रोज धोया जाता था
मुझे वो बीते हुए दिन बहुत सताते  है
जब आज हम ,
गायकुत्ते की तो छोडो ,खुद भी ,
तीन चार दिन पुराने ओसने हुए,
फ्रिज में रखे हुए  आटे की ,
रोटियां खाते है
आज,नन्हे नन्हे बच्चों को ,
अपने झुके हुए कन्धों पर ,
भारी भारी बस्ता लादे  देख कर
अपने स्कूल के दिन याद आते है
भले ही हम टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ते थे ,
हमारे बस्ते हलके होते थे
और बच्चों या उनके मातापिताओं पर
होमवर्क का कोई बोझ नहीं पड़ता  था
और बचपन हँसते , खेलते मस्ती में कटता था
समझ में नहीं आता ,
इतना बदलाव कैसे आ गया है
हम बदल गए है
हमारी मानसिकता बदल गयी है
प्रकृती बदल गयी है
जीवन की धारणाएं बदल गयी है
हम भावनाओं  के बंधन से उन्मुक्त होकर ,
ज्यादा व्यवाहरिक होते जा रहे है
संयुक्त परिवार टूटते जा रहे है
हमारी आस्थाएं दम तोड़ रही है
हम दो और हमारे दो के कल्चर ने ,
सारे रिश्ते और नातों को भुला दिया है
कहने को तो हमने बहुत प्रगति करली है,
पर इस प्रगति ने हमे रुला दिया है
पिछले चौहत्तर वर्षों में ,
मैंने दुनिया को इस तरह बदलते देखा है
कि मेरे काले बाल तो सफ़ेद हो गए ,
पर दुनिया ,जो कभी सफेद थी,
काली होती जा रही है
और  ये ही बात मुझे बहुत सता रही है 
शुभम भवतु

मदन मोहन बाहेती 'घोट

रंगीन मिज़ाजी

      रंगीन मिज़ाजी

दिन भर तपने वाला सूरज भी,
रोज शाम जब ढलता है ,
रंगीन मिज़ाज़ हो जाता है
और बदलियों के आँचल पर ,
तरह तरह के रंग बिखराता है
तो क्यों न हम,
अपने जीवन की,
 ढलती उम्र के सांध्यकाल में
रंगीनियाँ लाये
जाते जाते  जीवन का ,
पूरा आनंद उठायें
अंततः रात तो आनी  ही है

घोटू

कवि की मनोदशा

एक कवि हूँ मैं,
सदैव ही उपेक्षित,
सदैव ही अलग सा,
यूँ रहा हूँ मैं ।

पता नहीं पर क्यों,
सब भागते हैं मुझसे,
हृदय की बात बोलूँ,
तिरस्कार है होता ।

कविता ही दुनिया,
कविता ही भावना,
कविता ही सर्वस्व,
मेरा भंडार है यही ।

छंद मेरे कपडे,
अलंकार मेरे गहने,
रचना ही है भोजन,
मेरा संसार यही है ।

भावनाएँ अकसर बहकर,
कविता में है ढलती,
फिर भावनाओं का मेरे,
यूँ बहिष्कार क्यों है ।

क्यों नहीं सब सुनते,
खुले दिल से कविता,
हठ कर कर सबको,
कब तक सुनाता जाऊँ ।

काव्य ही जब धर्म है,
कविता ही तो कहुँगा,
सुनने को तुझे आतुर,
कैसे बनाता जाऊँ ।

क्यों नहीं समझते,
कृपा है माँ शारदे की,
मैं भी बहुत खाश हूँ,
एक कवि हूँ मैं ।

हाँ मैं कवि हूँ,
कविता ही सर्वस्व है,
देखो भले जिस भाव से,
पर हाँ मैं कवि हूँ ।

-प्रदीप कुमार साहनी

**कवि की दशा** (हास्य कविता

वह कवि है,
हाहाकार है,
डरते हैं बच्चे,
बस नाम से उसके ।

सोता नहीं जब रात में,
कहती उसकी माँ,
सोता है या बुलाऊँ,
जगा होगा वो कवि,
बच्चा खुद ब खुद,
सो जाता है यूँ ही ।

बुजुर्ग भी अकसर,
कतराते हैं उससे,
कतराना क्या है जी,
घबराते हैं उससे,
डरते हैं सोचकर,
छोड़ न दे कहीं,
कविता रुपी बम कोई ।

हमउम्र भी अकसर,
मिलते नहीं दिल से,
काम का बहाना कर,
खिसकते ही जाते ।
हाफिज सईद से ज्यादा,
इससे सिहरते जाते ।

पर उसको नहीं है गम,
आखिर वो कवि है,
जिह्वा में सदैव,
कविता है बसती,
अधर जब फड़फड़ाये,
कविता है झड़ती ।
आतुर रहता सदैव,
सुनाने अपनी रचना,
पकड़ पकड़ कर अकसर,
वो सुनाता भी है ।

बीच चौपाल में अकसर,
बिना चेतावनी दिए ही,
जब शुरु कर देता है,
काव्य पाठ अपना ,
बच बचाकर लोग,
तब फूटने हैं लगते ।
गिरते-पड़ते इधर उधर,
सरकने हैं लगते ।

पर अब कला उसकी,
पहचान में है आई,
अकसर लोग उसको,
अब बुलाते भी हैं,
भीड़ हो या जाम हो,
या कैसा भी रगड़ा हो,
तीतर बितर करने को,
उसकी सुनवाते भी हैं ।

बच्चे को सुलाना हो,
या भीड़ को भगाना हो,
हर काम में उसको,
याद करते हैं लोग ।

वो बस सुनाता है,
दिल की दिल में गाता है,
कविताएँ ही बनाता है,
जिस किसी भी रुप में,
भावनाएँ बहाता है,
आखिर वो कवि है ।
वो एक कवि है ।

(कृपया हास्य रूप में ही लें)

-प्रदीप कुमार साहनी

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

एक कौवे की कथा-एक गगरी की व्यथा

    एक कौवे की कथा-एक गगरी की व्यथा

मैं थी थोड़ी  भरी हुई सी ,मटकी,अपनी  छत पर
दिल्ली की भोली जनता सी,तुम आये झट उड़ कर
सीधी सी  टोपी  पहने , गुलबंद गले में   टांगा
मैं समझी भोला ,तुम निकले ,बड़े मतलबी कागा
सुख के सपने ,आश्वासन की ,कंकरी मुझ में डाली
मेरा पानी ऊपर आया ,तुमने प्यास   बुझाली
सोचा था अपनाओगे पर तुम सत्ता के भूखे
मेरा हाल कभी ना पूछा ,रो रो आंसू   सूखे
खांस खांस कर दिल्ली का पॉल्यूशन स्वयं बढ़ाया
और 'आड 'ईवन 'के चक्कर में जनता को उलझाया
रोज रोज झगड़े  करते,अपनी दूकान  चलाते
 मुझको कचरे से मैला कर ,बेंगलूर भग जाते
तुम झूंठे,तुम्हारे वादे और सब बातें झूंठी
भोग रहे सत्ता का सुख तुम ,मुझ को करके जूंठी
आम आदमी का रस चूंसा ,और नहीं फिर सुध ली
बची सिरफ़ छिलके सी टोपी,और तुम निकले गुठली

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

अपनी दिल्ली छोड़ कर

           अपनी दिल्ली छोड़ कर

अपना मफलर ,अपनी टोपी ,अपनी दिल्ली छोड़ कर
भाग रहे बंगलूर को हो ,इलाज कराने दौड़ कर
' आड 'और 'ईवन 'चक्कर में ,दिल्ली की जनता को सता
सड़कों पर फैला कर ढेरों ,कूड़ा ,करकट , रायता
पोलल्युशन को बढ़ा गए हो ,तुम अपना मुख मोड़ कर
अपना मफलर ,अपनी टोपी,अपनी दिल्ली छोड़ कर
मुश्किल से तुम भाग रहे हो ,यह तुम्हारा  ढोंग है
खांसी का इलाज है अदरक  और शहद है,लोंग है
हाल ठीक करते हो अपना और दिल्ली बदहाल है
नहीं दूध के धुले हुए तुम,क्या ये कोई चाल है
और ठीकरा इस सबका ,औरों के सर पर फोड़ कर
भाग रहे तुम बेंगलूर ,इलाज कराने  दौड़ कर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

तुम बेगाने हो जाओगे

 तुम बेगाने हो जाओगे
 
कोई बेगाने को इतना  अपनाओगे
कि अपनों से ,तुम बेगाने हो जाओगे
नौ महीने तक रखा कोख में ,पाला पोसा
सच्चे मन से ,तुमको अपना प्यार परोसा
उस माँ का भी तोड़ दिया दिल और भरोसा
बुरा भला कह ,उसको ही करते हो कोसा
बेटे ,सपने में भी कभी नहीं सोचा था ,
ऐसे हो जाओगे, इतने बदल जाओगे
कि अपनों से तूम बेगाने हो जाओगे
इतने वर्षों तक तुमको प्यारी लगती थी
वो माँ जो तुमको सबसे न्यारी लगती थी
चार दिनों ,पत्नी सुख पा,इतने पगलाए
उससे अच्छी कोई तुम्हे नज़र ना आये
प्यार सभी ही करते है अपनी पत्नी से ,
लेकिन तुम इतने दीवाने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे
अपने सारे भाई बहन का प्यार भुलाया
किया पिता ने इतना सब उपकार भुलाया
पढ़ा लिखा कर तुम्हे बनाया जिसने लायक
आज उन्ही की बातें लगती तुमको बक बक
मैं और मेरी मुनिया में सीमित कर दुनिया ,
शादी कर तुम इतने स्याने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे

मदन मोहन बाहेती;घोटू' 

सर्दी के रंग

       सर्दी के रंग

कोहरे से धुंधलाया ,आसमान नीला सा
सूरज का रंग भी ,पड़  गया पीला सा
गुलाबी गुलाबी सी ,सर्दियाँ पड़ने लगी
वृक्षों की हरियाली ,थोड़ी उजड़ने लगी
अलाव की लाल लाल,लपटों ने सहलाया
श्वेत बर्फ चादर ने ,सर्दी से सिहराया
सूरज के ढलने पर नारंगी हुई साँझ
रात रजाई में दुबकी,काला सा काजल आंझ
बैगनी 'प्यार घाव',सवेरे नज़र आये
सर्दी ने, देखो तो, सभी रंग बिखराये

घोटू 

कितने दिन जीवन बाकी है

           कितने दिन जीवन बाकी है

नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए ,
        नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है
नहीं किसी को कभी पता यह लग पाता है,
       कितने दिन तक ,साँसों की सरगम बाकी है
फिर भी उलझे बैठें है दुनियादारी मे ,
       परेशान है ,सोच रहे है कल ,परसों की
है कितनी अजीब फितरत इन्सां की देखो,
      कल का नहीं भरोसा ,बात करे बरसों की
मोहजाल में फंसे हुए,माया में उलझे ,
      जाने क्या क्या ,लिए लालसा भटक रहे है
अपनी सभी कमाई धन दौलत ,वैभव में ,
     रह रह कर के ,प्राण हमारे अटक रहे है
धीरे धीरे ,क्षीण हो रही ,जर्जर काया ,
      कई व्याधियों ने घेरा है, तन पीड़ित है
साथ समय के ,बदल रहा व्यवहार सभी का ,
       अपनों के बेगानेपन से मन पीड़ित है
ना ढंग से कुछ खा पाते ना पी पाते है ,
      फिर भी मन में चाह ,और हम जी ले थोड़ा
नज़र क्षीण है,याददास्त कमजोर पड़  गयी,
      लोभ मोह ने पर अब तक पीछा ना छोड़ा
पता नहीं यह मानव मन की क्या प्रकृती है,
     कृत्तिम साँसे लेकर कब तक चल  पायेगा
जिस दिन तन से उड़ जाएंगे प्राणपंखेरू ,
     हाड़मांस का पिंजरे है तन  ,जल जाएगा
तो क्यों ना जितने दिन शेष बचा है जीवन ,
     उसके एक एक पल का,जम कर लाभ उठायें
हंसी ख़ुशी से जिए ,तृप्त कर निज तन मन को,
    जितना भी हो सकता ,सब में ,प्यार लुटाएं     
सभी जानते,दुनिया में,यह सत्य अटल है,
    माटी में ही माटी का संगम बाकी है
नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए,
   नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मिडिया -तूने क्या क्या किया

     मिडिया -तूने क्या क्या किया

हम सुनते है ,तुम सुनते हो,सब सुनते है ,
        तरह तरह की खबर रोज टी वी देता है
हरेक  खबर की निश्चित एक उमर होती है,
        किन्तु मिडिया उसको लम्बी कर देता है
बलात्कार ,अपहरण और मर्डर की खबरें,
       तरह तरह की रोज रोज कितनी आती है
इतना ज्यादा उन्हें उछाला पर जाता है,
      जिससे कई जरूरी खबरें  दब जाती है
कितनी न्यूज़ चेनले चलती चौबीस घंटे ,
     कितनी बार ,कहाँ से नयी खबर लाएगी
पर चौबीस घंटे कुछ ना कुछ करना ही है,
      तो फिर वो खबरों पर चर्चा  करवाएगी
कुछ जाने पहचाने नामी,चर्चित चेहरे ,
      ऐसी चर्चाओं में रोज नज़र  आते है 
 सारे के सारे बढ़ बढ़ बातें करते है ,
      एक दूसरे को गाली दे,चिल्लाते  है
  क्रिकेट  मैच जीतते ,वाह वाह होती है ,
      और हार जाते ,केप्टिन गाली खाता है
कोई चैनल सदा किसी का आलोचक है ,
      कोई चैनल ,सदा किसी के गुण गाता है
कभी दादरी वाला केस उछल जाता है ,
      कभी मालदा वाली घटना  दब जाती है
हर एक खबर के पीछे कोई भेद छुपा है,
      और कुछ खबरे दावानल सी बन जाती है
चंद्रग्रहण पर,सूर्यग्रहण पर ,घंटों घंटों ,
     ज्योतिषियों का पेनल मिल करता है चर्चा
करवा लाइव टेलीकास्ट कथा का वाचक,
         पॉपुलर बनने को करते कितना खर्चा
राजनीति की उठापटक में माहिर टी वी,
       कभी कभी सत्ताएं भी पलटा करता है
कभी किसी को बहुत उठता,बहुत गिराता ,
      सत्ता ही क्या,हर विपक्ष उससे डरता है
हुई किसी की मौत चार दिन चर्चा होती,
       बरसों बाद उखड़ते मुर्दे  गढ़े हुए है
चार दिनों में मिले  जमानत कोई को तो,
      कोई सालों यूं ही जेल में पड़े हुए है
ग्रह बदले ना बदले ,टीवी जब रुख बदले ,
      कितनो का ही भाग्य  बदल लेकिन जाता है
कोई पार्टी सत्ता से च्युत हो जाती है ,
    और किसी के हाथों में पावर  आता है
खेल मिडिया का है या फिर है पैसों का,
     कुछ भी हो,दोनों के दोनों पावरफुल है
देख मिडिया पर्सन,माइक और कैमरा ,
     अच्छे अच्छों की हो जाती बत्ती गुल है
कोई फेंकता नेता पर चप्पल या श्याही,
    पब्लिसिटी ,अच्छी खासी, पा लेता है
हरेक खबर की निश्चित एक उमर होती है,
     मगर मिडिया उसको लम्बी कर देता है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

काटा काटी

         काटा काटी

मार काट से क्यों है ये  दुनिया  घबराती
जबकि कितनी काट ,काम में काफी आती
नाइ काटे बाल ,आदमी संवर जाएगा
दरजी काटे वस्त्र ,नया फैशन आएगा
माली काटे फूल पत्तियां,निखरे गार्डन
नेता काटे रिबिन, उसे कहते  उदघाटन
जेब किसी की कटती है वो लुट जाता है
रोज रोज किट किट से झगड़ा बढ़ जाता है
मंत्री जी वो जबसे बने ,कट रही चांदी
धन दौलत और शोहरत होती पद की बांदी
ओहदे वाले अफसर  ,काटे रोज  मलाई
कटता सदा  गरीब ,मगर  है यही सचाई
खरबूजे पर चाकू, चाकू पर खरबूजा
गिरे कोई भी,कटता  बेचारा खरबूजा
काटा काटी ने है बिगड़ा काम सुधारा
जब ना खुलती गाँठ,काटना पड़ता नाडा
नींद न आती जब रातों को काटे मच्छर
कोई ज्यादा उड़े ,काट दो तुम उसके पर
दे दो ज्यादा ढील,पतंगे कट जाती है
थोड़े बनो दबंग, मुसीबत  हट जाती है 
कुछ होते इतने जहरीले ,क्या बतलाये
जिनका काटा ,पानी तक भी मांग न पाये
मुश्किल के दिन,मुश्किल से ही कट पाते है
अपने से मत कटो, काम वो ही आते  है
कभी किसी की बात न काटो,चिढ जाएगा
बिना बात के झगड़ा करके  भिड़   जाएगा
अपना पेट काट कर ,जिन बच्चो को पाला
बुढ़ापे में ,घर से उनने , हमें  निकाला 
यूं ही किट किट में मत उलझाओ निज मन
जितना जीवन बचा ,काट दो,कर हरिस्मरण

घोटू

दाद

दाद

जो आता है मेरे मन में ,उसे ढाल कर के लफ्जों में ,
अपनी बात ग़ज़ल कह कर के ,सदा सुनाया करता हूँ
जिन्हे बात मेरी जमती है,जम कर दाद मुझे देते है ,
मगर दाद जो तुमने दी है , सदा  खुजाया करता  हूँ

घोटू

मेरा गाँव-मेरा देश

        मेरा गाँव-मेरा देश

मेरे गाँव के हर आँगन में ,बिरवा है तुलसीजी का ,
    गली गली में मीरा जी के ,देते भजन सुनाई है
हर घर एक शिवालय सा है,हर दिवार पर राम बसे ,
    कान्हा की बंसी बजती ,रामायण की चौपाई है
मंदिर से घण्टाध्वनि आती ,भजन कीर्तन होता है,
    ताल मंजीरे ,ढोलक के स्वर ,सदा गूंजते रहते है
जहां गंगा की एक डुबकी में पुण्य कमाया जाता है,
    जहां गाय को गौमाता कह  लोग पूजते रहते है
जहां पीपल ,वट वृक्ष,आंवला ,का भी पूजन होता है,
   रस्ते के पत्थर भी पूजे जाते कह  कर पथवारी
अग्नि की पूजा होती है ,दीप  वंदना  होती है ,
   हवन यज्ञ में आहुति दे ,पुण्य कमाते है भारी
गंगा जमुना का उदगम भी ,तीर्थ हमारा होता है,
  गंगाजल लोटे में भर कर ,उसकी पूजा की जाती
हम पत्थर की मूरत  में भी ,प्राण प्रतिष्ठा करते है,
   सात अगन के फेरे लेकर ,बनते है जीवनसाथी
हम सीधे सादे भोले है ,मगर आस्था इतनी है,
    उगते और ढलते सूरज को अर्घ्य चढ़ाया जाता है
जहाँ औरतें व्रत करती है, पति को लम्बी उम्र मिले,
   चन्द्रदेव के दर्शन कर के भोजन खाया   जाता है
श्राद्धपक्ष में सोलह दिन तक ,तर्पण करते पुरखों का,
   श्रद्धा से सर उन्हें नमाते ,हम उनके आभारी है
धर्म सनातन,बहुत पुरातन ,धन्य धन्य यह संस्कृती है,
   हम भारत के वासी ,भारतमाता  हमको प्यारी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
   

रविवार, 31 जनवरी 2016

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है,
लफ्जों में धूल जमा क्यों है,
आलम खामोशी का कुछ कह रहा,
अपनी धुन में सब रमा क्यों है..

डफली अपनी, अपना राग क्यों है,
मन में सबकी एक आग क्यों है,
कशमकश में है हर एक शख्स यहाँ,
रिश्तों में अब घुला झाग क्यों है..

हर आँख यहाँ खौफ जदा क्यों है,
मुस्कुराने की वो गुम अदा क्यों है,
भीड़ में रहकर खुद को न पहचाने,
खुद से ही सब अलहदा क्यों है..

एक होकर भी वो जुदा क्यों है,
आत्मा देह में गुमशुदा क्यों है,
पाषाण सा हृदय हो रहा है सबका,
तमाशबीन देख रहा खुदा क्यों है..

"प्रदीप कुमार साहनी"

बुधवार, 27 जनवरी 2016

कैसा तेरा प्यार था

(तेजाब हमले के पीड़िता की व्यथा)

कैसा तेरा प्यार था ?
कुंठित मन का वार था,
या बस तेरी जिद थी एक,
कैसा ये व्यवहार था ?

माना तेरा प्रेम निवेदन,
भाया नहीं जरा भी मुझको,
पर तू तो मुझे प्यार था करता,
समझा नहीं जरा भी मुझको ।

प्यार के बदले प्यार की जिद थी,
क्या ये कोई व्यापार था,
भड़क उठे यूँ आग की तरह,
कैसा तेरा प्यार था ?

मेरे निर्णय को जो समझते,
थोड़ा सा सम्मान तो करते,
मान मनोव्वल दम तक करते,
ऐसे न अपमान तो करते ।

ठान ली मुझको सजा ही दोगे,
जब तू मेरा गुनहगार था,
सजा भी ऐसी खौफनाक क्या,
कैसा तेरा प्यार था ?

बदन की मेरी चाह थी तुम्हे,
उसे ही तूने जला दिया,
आग जो उस तेजाब में ही था,
तूने मुझपर लगा दिया ।

क्या गलती थी मेरी कह दो,
प्रेम नहीं स्वीकार था,
जीते जी मुझे मौत दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

मौत से बदतर जीवन मेरा,
बस एक क्षण में हो गया,
मेरी दुनिया, मेरे सपने,
सब कुछ जैसे खो गया ।

देख के शीशा डर जाती,
क्या यही मेरा संसार था,
ग्लानि नहीं तुझे थोड़ा भी,
कैसा तेरा प्यार था ?

अब हाँ कह दूँ तुझको तो,
क्या तुम अब अपनाओगे,
या जो रूप दिया है तूने,
खुद देख उसे घबराओगे?

मुझे दुनिया से अलग कर दिया
जो खुशियों का भंडार था,
ये कौन सी भेंट दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

दोष मेरा नहीं कहीं जरा था,
फिर भी उपेक्षित मैं ही हूँ,
तुम तो खुल्ले घुम रहे हो,
समाज तिरस्कृत मैं ही हूँ ।

ताने भी मिलते रहते हैं,
न्याय नहीं, जो अधिकार था,
अब भी करते दोषारोपण तुम,
कैसा तेरा प्यार था ?

क्या करुँ अब इस जीवन का,
कोई मुझको जवाब तो दे,
या फिर सब पहले सा होगा,
कोई इतना सा ख्वाब तो दे ।

जी रही हूँ एक एक पल,
जो नहीं नियति का आधार था,
करती हूँ धिक्कार तेरा मैं,
कैसा तेरा प्यार था ?

-प्रदीप कुमार साहनी

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

परिंदे

                    परिंदे

वो परिंदे ,राजपथ पर ,उड़ते थे जो शान से ,
आजकल मेरी गली में ,नज़र वो आने लगे  है
चुगा करते थे कभी जो ,चुन चुन के ,मोती सिरफ़ ,
कुछ भी दाना फेंक दो ,वो बेझिझक खाने लगे है 
सुना है कि कोई जलसा ,होने वाला है वहां ,
सुरक्षा की व्यवस्थाएं ,चाक और चौबंद  है
हर तरफ से ,हर किसी पर रखी जाती है नज़र,
इसलिए उनका वहां पर ,हुआ उड़ना बंद है
ये भी हो सकता है या फिर 'इलेक्शन 'हो आ रहा ,
करो जन संपर्क तुम,ऐसा मिला  आदेश हो
'ख़ास' से वो 'आम'बन कर ,चाहते हो दिखाना ,
इसी चक्कर में बदल  ,उनने  लिया निज भेष हो
बने खबरों में रहें ,टी वी में  और  अखबार  में ,
कहीं भी ,कुछ हादसा हो ,दौड़ कर  जाने  लगे है
मगर उनकी असलियत सबकी समझ में आ गयी ,
जो कि पिछले कई वर्षों से, गए  उनसे ठगे  है 
फिर भी देखो ,हर तरफ ,हर गली में ,हर गाँव में,
जिधर देखो ,उस तरफ ,वो आज मंडराने  लगे है
 वो परिंदे,राजपथ पर ,उड़ते थे ,जो शान से ,
आजकल मेरी गली में ,नज़र वो आने  लगे  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

माँ की पीड़ा

                      माँ की पीड़ा              

बेटे ,जब तू रहा कोख में ,बहुत सताया करता था
मुझको अच्छा लगता था जब लात चलाया करता था
और बाद में ,लेट पालने में,जब भरता  किलकारी
जैसे साईकिल चला रहा ,लगती थी ये हरकत प्यारी
या फिर मेरी गोदी में चढ़,जब जिद्दी पर आता था
बहुत मचलता था ,रह रह कर,मुझ पर लात चलाता था
सोते सोते ,लात चलाने की, भी  थी ,आदत तेरी
बार बार तू ,हटा रजाई , कर देता  आफत   मेरी
तेरी बाल सुलभ क्रीड़ाएं, बहुत मोहती थी जो मन
नहीं पता था ,एक दिन ऐसे ,उभरेगी वो आफत बन
कभी न सोचा ,लात मारना ,ऐसा   रंग  दिखायेगा
लात मार कर ,अपने घर से ,एक दिन मुझे भगायेगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



अपहरण

                           अपहरण

मैंने थाने में लिखाई  ये रपट , चार  दिन से  हुआ सूरज  लापता
दरोगा ने मुझसे ये दरयाफ्त की ,अकेला या गया कुछ लेकर, बता
मैंने बोला' क्या बताऊँ तभी से ,'धूप 'भी गायब है,मन में क्लेश है
दरोगा बोले,नहीं गुमशुदाई ,अपहरण का ये तो लगता  केस  है
अच्छा ये बतला ,उमर क्या धूप की,कहीं नाबालिग तो ना थी छोकरी
कब से दोनों का था चक्कर चल रहा ,और कहाँ था ,सूर्य करता  नौकरी
फिरौती का कहीं तेरे पास तो,कहीं से कुछ फोन तो  आया  नहीं
मैंने बोला ,नहीं,पर उस रोज से ,नज़र मुझको आ रही 'छाया'कहीं
दरोगा जी बोले 'तू मत कर फिकर ,झेल दो दो लड़कियां ना पायेगा
एक मुश्किल से संभलती ,दो के संग,परेशां हो लौट खुद ही आएगा '

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 20 जनवरी 2016

भुनना

        भुनना

हमने थोड़ी करी तरक्की ,वो जल भुन  कर खाक हो गए
थोड़े नरम ,  स्वाद हो जाते ,पर वो तो गुस्ताख़ हो  गए
कड़क अन्न का एक एक दाना ,भुनने पर हो जाय मुलायम
स्वाद मूंगफली में आ जाता ,उसे भून जब  खाते  है हम
मक्की दाने सख्त बहुत है,ऐसे  ना खाए  जा सकते
बड़े प्रेम से सब खाते जब ,भुन  कर'पोपकोर्न' वो  बनते
जब भी आती नयी फसल है ,उसे भून कर हम है खाते
चाहे लोढ़ी हो या होली ,खुश  होकर त्योंहार  मनाते
होता नोट एक कागज़ का ,मगर भुनाया जब जाता है
चमकीले और खनखन करते ,सिक्कों की चिल्लर लाता है
जिनकी होती बड़ी पहुँच है ,उसे भुनाया  वो करते है
लोग भुनाते  रिश्तेदारी  ,मौज  उड़ाया  वो करते है
भुनना ,इतना सरल नहीं है, अग्नि में सेकें जाना  है
लेकिन भुनी चीज खाने का ,हर कोई ही दीवाना  है
गली गली में मक्की भुट्टे ,गर्म और भुने मिल जाते है
शकरकंदियां , भुनी आग में ,बड़े शौक से सब खाते  है    
ना तो तैल ,नहीं चिकनाई,अन्न आग में जब भुनता है
होता 'क्लोस्ट्राल फ्री' है,और स्वाद  दूना  लगता  है
लइया ,खील ,भुनो चावल से ,लक्ष्मी पर परसाद चढ़ाओ
है प्रसाद बजरंगबली का ,भुने चने ,गुड के संग  खाओ
औरों की तुम देख तरक्की ,बंद करो अब जलना ,भुनना
आगे बढ़ने का उनसे तुम,सीखो  सही रास्ता  चुनना
अगर आग में अनुभवों की ,भुन कर तुम सके जाओगे
बदलेगा व्यक्तित्व तुम्हारा ,सबके मन को तुम भाओगे 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

चने से बनो

           चने से बनो

चने को चबाना ,बड़ा यूं तो  मुश्किल,
मगर भून लो ,स्वाद आये  करारा
चने को दलों तो ,बने दाल  प्यारी ,
अगर पीसो ,बनता है ,बेसन निराला 
ये  बेसन कि जिससे ,बनाते पकोड़े,
कभी भुजिया बनती या आलूबड़े है 
कभी ढोकला है ,कभी खांडवी है ,
कभी गांठिया है ,कभी फाफडे है
बनाते है कितने ही पकवान इससे ,
कभी बेसन चक्की,कभी बूंदी प्यारी ,
उसी से ही बनते है बेसन के लड्डू ,
कितनी  ही प्यारी ,मिठाई निराली
अगर बनना है कुछ ,चने से बने हम,
हमें सिकना होगा या पिसना पड़ेगा
तभी बन सकेंगे ,मिठाई से प्यारे ,
तभी प्यार लोगों का ,हमसे  बढ़ेगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जो माँ का प्यार ना मिलता

         जो माँ का प्यार ना मिलता

जो माँ  का प्यार ना मिलता ,तो हम जो हैं ,वो ना होते
पिता की डाट ना  पाते ,तो हम जो हैं ,वो ना होते
हमें  माँ ने  ही पैरों  पर,खड़े होना सिखाया है
हमारी थाम कर ऊँगली ,सही रस्ता दिखाया है
आये जब आँख में आंसूं ,तो आँचल से  सुखाया है
सोई गीले में खुद,सूखे में ,पर हमको सुलाया  है
जरा सा हम टसकते थे ,तो वो बेचैन  होती  थी
हमें तकलीफ होती थी ,दुखी होकर वो रोती  थी
पिलाया दूध छाती से ,हमें पाला ,किया पोषण
रखा चिपटा के सीने से ,हमारा ख्याल रख हर क्षण
पुष्प ममता का ना खिलता ,तो हम जो है ,वो ना होते
जो माँ का प्यार ना मिलता ,तो हम जो है ,वो ना होते 
 पिताजी प्यार करते पर ,अलग अंदाज था उनका
डरा करते से हम उनसे और चलता  राज था उनका
वो बाहर सख्त नारियल थे,मगर अंदर मुलायम थे
बड़ा था संतुलित जीवन ,महकते जैसे चन्दन थे
उन्ही का आचरण ,व्यवहार ,हरदम कुछ सिखाता था
उन्ही का सख्त अनुशासन ,भटकने से बचाता  था
उन्होंने धर्म ,धीरज की ,हमें शिक्षा  सिखाई  थी
लक्ष्य पाने को जीवन का ,राह उनने  बताई  थी
अगर वो पाठ ना पाते ,तो हम जो है ,वो ना होते
पिता की डाट ना पाते ,तो हम जो है ,वो ना होते

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'             
             
 


वाह वाही

         वाह वाही

मैंने कुछ अर्ज किया ,तुमने वाह वाह किया ,
तबज्जो जब कि दी बिलकुल भी नहीं गैरों ने
बताना सच कि तूने दोस्ती निभाई सिरफ़ , 
या असल में भी था , दम कोई  मेरे  शेरों  में
ये तेरी तारीफे ,दुश्मन मेरी बड़ी निकली ,
तेरी वाह वाही ने  , रख्खा मुझे  अंधेरों में
पता लगा ये ,निकल आया जब मैं  महफ़िल से ,
मुशायरा लूट लिया ,और ही  लुटेरों ने

घोटू 

नाम कम्बल होता है

           नाम कम्बल होता है

लड़ाई लड़ता है सैनिक,जान पर खेल कर अपनी ,
मगर जब जीत होती है ,नाम 'जनरल 'का होता है
रोज खटता है ,मेहनत कर ,कमाई मर्द करता है ,
मगर घर को चलाने में ,नाम औरत  का होता  है
सिरफ़ ये रोकते है ,गर्मी बाहर जा नहीं सकती ,
मगर इस पहरे दारी का ,उठाते फायदा पूरा ,
हमारे जिस्म की गर्मी ,हमीं को गर्म  रखती है,
मगर सरदी बचाने में  ,नाम कम्बल का होता है 

     मदन मोहन बाहेती 'घोटू'       

शिकवे -शिकायत

           शिकवे -शिकायत

मैंने ऐसा क्या कहा और तुमने ऐसा क्यूँ कहा ,
               एक दूजे को यूं ही , इल्जाम हम देते  रहे
इसी शिकवे शिकायत में उमर सारी काट दी ,
             पीठ खुद की थपथपा ,इनाम हम  देते  रहे
देखते एक दूजे की जो खूबियां,अच्छाइयां,
          दो घड़ी मिल बैठते और बात करते प्यार की
होता होली  मिलन हर दिन,दिवाली हर रात को,
         जिंदगी कटती हमारी , रोज  ही  त्योंहार  सी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'   
            

शनिवार, 16 जनवरी 2016

देशी खाना

       देशी खाना

रोज रोज तू  नूडल खाये,बर्गर खाये, पीज़ा
जंक फ़ूड पर आज देश का ,बच्चा बच्चा रीझा
        कभी खा देशी खाना लाल
       बढ़ाये सेहत ,स्वाद  कमाल
सोने सी मक्का की रोटी ,सौंधा सरसों का साग
गुड के संग तू खा ले बेटा ,जाग जाएंगे भाग
        साथ में तड़के वाली दाल
         बढ़ाये सेहत ,स्वाद कमाल
मीठा गुड की गरम लापसी, डाल ढेर सा  घी
एक बार खा,बार बार फिर ,ललचायेगा जी
        साथ में गरम कढ़ी तू डाल
         बढ़ाये सेहत, स्वाद  कमाल
सोंधी सोंधी खुशबू वाली ,प्यारी बाटी ,दाल
और साथ में चाख चूरमो ,घी से माला माल
         साथ में हो चटनी की झाल
          बढ़ाये सेहत स्वाद  कमाल
महाराष्ट्र का झुनका भाकर ,दक्षिण, इडली,डोसा 
 बहुत भायेगा तुझे बिहारी, प्यारा  लिट्टी चोखा
         और फिर रसगुल्ला, बंगाल
           बढ़ाये सेहत ,स्वाद कमाल
उबले ताजे गन्ना रस में ,चावल वाली खीर
सबका मन सदियों से मोहे,क्या रांझा ,क्या हीर
         स्वाद की इसके नहीं मिसाल
          बढाए सेहत, स्वाद  कमाल
नयी उमर की नयी फसल तुम,हम है बीते कल के
देख आज भी फौलादी है,हम भी उसी  नसल के
          हवा पश्चिम की,तुम  बेहाल
           बदल लेगा तू अपनी चाल 
          कभी खा देशी खाना  लाल 
           बढ़ाये सेहत ,स्वाद  कमाल  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
             

 
एक बार खा ,याद आएगी ,तुझे देश की मिट्टी
              
                 

उलझन

        उलझन

बाले , तेरे बाल जाल में , उलझ  गए  है  मेरे  नैना
इसीलिये श्रृंगार समय तुम उलझी लट सुलझा मत लेना
 अगर लगा कर कोई प्रसाधन ,धोवो और संवारो जब  तुम,
बहुत मुलायम और रेशमी ,होकर सभी निखर  जाएंगे
इन्हें सुखाने,निज हाथों से ,लिए तोलिया ,जब झटकोगी ,
एक एक कर ,जितने भी है,मोती  सभी ,बिखर  जाएंगे
कुछ तो गालों को चूमेंगे ,कुछ  बिखरें  तुम्हारे  तन पर ,
किन्तु बावरे मेरे नैना ,इन्हे फिसलने, तुम देना मत
क्योकि देर तक साथ तुम्हारा ,इन्हे उलझने में मिलता है ,
कंचन तन पर फिसल गए तो ,बिगड़ जाएगी इनकी आदत
 ये भोले है,ये क्या जाने ,उलझन का आनंद  अलग है ,
कोई उलझ उलझ कर ही तो,अधिक देर तक ,रहता टिक है
चुंबन हो कोमल कपोल का, या सहलाना कंचन काया ,
होता बहुत अधिक रोमांचक ,लेकिन वह सुख ,बड़ा क्षणिक है
इसीलिये जब लट  सुलझाओ ,अपने मन की कंघी से तुम,
इनको जैसे तैसे करके ,अपने पास रोक तुम लेना
बाले,तेरे बाल जाल  में ,उलझ गए है मेरे नैना
इसीलिये  श्रृंगार समय तुम ,उलझी  लट सुलझा मत लेना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

एक अरसा गुजर गया

     एक अरसा गुजर गया

सोने की लालसा ,
आग की सुनहरी लपटों की तरह ,
इस तरह फ़ैल रही है ,
कि आदमी के जागने और सोने में,
कोई अंतर ही नहीं रह गया है 
नैतिकता ,जल रही है,
और रह रह कर ,
काले धुवें का गुबार ,
 वातावरण को  
इस तरह आच्छादित कर रहा है,
कि  मुझे स्वच्छ नीला आसमान  देखे ,
एक  अरसा  गुजर गया है

घोटू   

साकार-निरंकार

     साकार-निरंकार

मैं कार हूँ
आविष्कार हूँ
चलायमान हूँ,
चमत्कार हूँ
      मैं कार हूँ
      विकार हूँ
      चाटुकार हूँ
      बलात्कार हूँ  
मैं कार हूँ
अहंकार हूँ
हुंकार  हूँ
हाहाकार हूँ
       मैं कार हूँ
       ओंकार हूँ
       जगती का कारक ,
       निरंकार हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 9 जनवरी 2016

हमसफर न हुए

चंद कदम भर साथ तुम रहे,
संग चल कर हमसफर न हुए,

पग पग वादा करते ही रहे,
होकर भी एक डगर न हुए ।

तेरी बातें सुन हँसती हैं आँखें,
खुशबू से तेरी महकती सांसे,

दो होकर भी एक राह चले थे,
संग चल कर हमसफर न हुए,

एक ही गम पर झेल ये रहे,
होकर भी एक हशर न हुए ।

फिर से तेरी याद है आई,
पास में जब है इक तन्हाई,

भ्रम में थे कि हम एक हो रहे,
संग चल कर हमसफर न हुए,

अच्छा हुआ जो भरम ये टूटा,
होकर भी एक नजर न हुए ।

दिल में दर्द और नैन में पानी,
अश्क कहते तेरी मेरी कहानी,

यादें बन गये वो चंद लम्हें,
संग चल कर हमसफर न हुए,

धरा रहा हर आस दिलों का,
होकर भी एक सफर न हुए ।

-प्रदीप कुमार साहनी

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

तमाशा सब देखेंगे

          तमाशा सब देखेंगे
ऐसा क्या था ,जिसके कारण ,थे इतने मजबूर
आग लगा दिल की बाती  में,भाग गए तुम दूर ,
       पटाखा  जब फूटेगा ,तमाशा सब देखेंगे 
मन की सारी दबी भावना ,राह हुई अवरुद्ध
इतना ज्यादा भरा हुआ है ,तन मन में बारूद
एक हल्की चिंगारी भी ,विस्फोट करे भरपूर
        पटाखा जब फूटेगा ,तमाशा सब देखेंगे
इतने घाव दे दिए तुमने ,अंग अंग में है पीर
लिखी विधाता ने ये कैसी ,विरहन की तक़दीर
मलहम नहीं लगा तो ये बन जाएंगे नासूर
           बहे पीड़ा की लावा  ,तमाशा सब देखेंगे
तुमने  झूंठी प्रीत दिखा कर,करा दिया मदपान
भरे  गुलाबी  डोर आँख में  ,होंठ  बने  रसखान
जब भी पान रचेगा ला कर ,इन होठों पर नूर ,
           बदन सारा महकेगा ,तमाशा सब देखेंगे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

वो माँ है

          वो माँ है

इस दुनिया में ,सबसे ज्यादा उच्चारित जो नाम -वो माँ है
वो देवी जिसके चरणो में  बसे  हुए  सब  धाम  - वो माँ है
वातसल्य  से भरी हुई जो अनुपमा है
जो स्नेह की बहती गंगा और यमुना है
ममता का जिन आँखों से झरता झरना है
दिन में  सूरज और रात में    चन्दरमा है
जिसका अपना तेज और अपनी गरिमा है
अपरम्पार हुआ करती जिसकी महिमा है
संतानो पर प्यार लुटाया  करती जो  अविराम -वो माँ है
इस दुनिया में,सबसे ज्यादा ,उच्चारित जो  नाम - वो माँ है 
वो ही लक्ष्मी ,सरस्वती है ,वही उमा है
वो ही विष्णु है ,शंकर है और ब्रह्मा  है 
मंगलदायिनी,शक्तिरूपिणी और क्षमा है
सदभावों  की पूजनीय जीवित  प्रतिमा  है
अनुपम और अलौकिक है जो मनोरमा है 
भ्रमण तीर्थ का जिसकी पावन परिक्रमा है
जननी हमारी ,हमपर ,जीवन भर करती  अहसान -वो माँ है
इस दुनिया में सबसे ज्यादा उच्चारित जो नाम  -वो माँ है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

आज का देहली का मौसम

          आज का देहली का मौसम

थका थका सा दुखी लग रहा सूरज पीला,
  अलसाई  अलसाई सी नज़रों से देखे
छुपा हुआ है ओढ़ घने कोहरे की चादर ,
ऐसा लगता 'धूप ' गई है अपने  मैके
शायद रूठ गई मौसम की बेरहमी से ,
या फिर शीत  हवाएँ उसकी सौत बन गई
देखें,कब तक ,कौन जीत पायेगा,किसको,
ऐसी ही जिद ,इन दोनों के बीच ठन  गयी
लेकिन रिमझिम बरसी फिर बारिश की बूँदें ,
जैसे  हो सन्देश सुलह  का ,लेकर  आई
कोहरा छंटा ,मिट गया झगड़ा उन दोनों का,
सूरज चमका ,धूप सुनहरी ,फिर मुस्काई

घोटू

बुधवार, 6 जनवरी 2016

एक प्रश्न

        एक प्रश्न

हे राम,
रावण ने छद्म रूप धर,
तुम्हारी पत्नी  को चुराया
अपने पुष्पक विमान में बिठा ,
लंका ले आया
पर उसे अपने राजमहल में नहीं
रखा दूर ,अशोकवाटिका में कहीं
उसको धमकाया ,ललचाया ,
पर उसे छुआ तक नहीं
वह लंकापति ,जब उसको हर सकता था
उसके साथ जबरजस्ती भी कर सकता था
पर वो भले ही दानव था
उसमे थी मानवता
पर तुमने उसे दंड दिया
उसका  संहार किया
और आज ,मानव का रूप लिए ,
कोई दानव  ,बलात्कारी
सड़क से लड़की को अगवा कर ,
पार कर जाए ,नृशंसता की हदें सारी
और वो लड़की ,आखरी दम  तक लड़े
वो बलात्कारी पकड़ा जाए
और उस पर मुकदमा चले
सालों बाद ये निर्णय आये
कि क्योंकि वह दरिंदा ,
बालिग़ नहीं था
इसलिए उसे सजा नहीं दे सकती ,
देश की क़ानून व्यवस्था
उसे सुधारगृह भेजा जाए
तो क्या उस वहशी दरिंदे को,
 सुधारने की जरूरत है  या ,
देश के क़ानून को सुधरने की जरूरत है
क्या रामराज्य के सपने दिखनेवाली ,
सरकार को ,कुछ सोचने की जरूरत है
हे राम,सच बतलाना ,
ऐसा होता तो तुम क्या निर्णय लेते ?
रावण नाबालिग होता ,
तो क्या तुम उसे छोड़ देते ?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'


सर्दी -गर्मी

         सर्दी -गर्मी

सर्दी क्या आई ,गर्मजोशी आपकी गयी ,
होता है मुश्किलों से ही दीदार मयस्सर
ऐसा छुपा के रखते हो तुम अपने आप को,
स्वेटर है,स्वेट शर्ट है ,और अंदर है इनर
बिस्तर पे भी पड़ता  है हमें ,तुमको ढूंढना ,
ऐसी  रजाई छाई रहती जिस्मो जिगर पर
छूना तुम्हारा जिस्म भी मुश्किल अब हो गया,
अब तो बर्फ की सिल्ली से तुम हो गए डियर
आती है याद गर्मीयो की  रातें वो प्यारी ,
खुल्ला खुल्ला सा रूप था वो ख़ास तुम्हारा
पंखे की तरह घूमता था बावरा सा  मैं ,
होता था सांस सांस में  अहसास  तुम्हारा
खुशबू से भरे तन पे रहता नाम मात्र को ,
वो हल्का,प्यारा ,मलमली  ,लिबास तुम्हारा
ऐ.सी. की ठंडक में भी बड़ी लगती  हॉट थी ,
आता है याद रह रह वो रोमांस तुम्हारा 

घोटू

समर्पित कार्यकर्ता

    समर्पित कार्यकर्ता 

समर्पित कार्यकर्ता ,जनसेवक महान
सीधा सादा व्यक्तित्व,यही उनकी पहचान
यदि मोहल्लेवाले किसी ने भी,
कोई आयोजन किया है
तो उनका प्राकट्य ,
एक सहज प्रक्रिया है
यहाँ उनकी जनसेवा की भावना ,
प्रशंसनीय होती है
कुर्सी ,जाजम बिछाने से लेकर ,
जलपान की व्यवस्था के समापन तक ,
उनकी व्यस्तता ,दर्शनीय होती है
कैसे भी आगे की कुर्सी हथियाना,
कोई भी फोटो के अपनी गर्दन घुसाना ,
जलपान में दिए जानेवाले ,
खाद्यपदार्थों के स्वाद की उत्कृष्टता का,
पूर्व परीक्षण कर ,ये देते सर्टिफिकेट है
और समापन के बाद ,
बची हुई खाद्यसामग्री को सलटाने की ,
समुचित व्यवस्था ,
उनके सामाजिक कर्तव्यों में एक है
वो हर समारोह में ,मंडराते पाये जाते है
हर फोटो में नज़र आते है
और अपनी सेवामयी ,कार्यकुशलताके कारण,
मोहल्ले में अच्छी तरह पहचाने जाते है
वो एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्त्ता है
उनके बिना हर कार्यक्रम ,अधूरा  लगता है
वो स्वयं सेवक बन ,स्वयं की सेवा का भी ,
रखते बड़ा ध्यान है
ऐसे समर्पित कार्यकर्ता पर ,
हमारे पूरे मोहल्ले को अभिमान है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

दास्ताने मख्खी

         दास्ताने मख्खी

एक मख्खी ,
जो नंगे पैरों ,
गाँव की गलियों में खेली थी
जिसकी बीसियों सहेली थी
एक दिन खेलती खेलती ,
एक  खड़ी हुई कार में गई चली  
खुशबूमय स्वच्छ वातावरण देख ,
 हो गई बावली
नरम नरम सीटों पर ,
बैठ कर इतराई
उछली,कूदी,सहेलियों ने बुलाया ,
बाहर ना आयी
अचानक कार चली
मच गयी खलबली
संकुचित सी जगह में ,
इधर उधर भागी
पर रही अभागी
परेशान कार के मालिक ने ,
थोड़ा सा शीशा उठा भर दिया
और बीच सड़क पर ,
उसे कार से बाहर कर दिया
अब वह बीच जंगल में ,
अकेली भटक रही है
कोई साथी संगी नहीं है
बेचारी ,जो दीवानी थी ठाठ की
ना घर की रही ,न घाट  की

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

घोटू जी पार्टियों में ,पीते नहीं है पानी

  घोटू जी पार्टियों में ,पीते नहीं है पानी

कुछ मॉकटेल पीते, कुछ कॉकटेल पीते ,
कुछ फ्रेश ज्यूस हो तो फिर बात है सुहानी
हो दूध की  कढ़ाही ,तो तीन चार कुल्हड़ ,
सात आठ गोलगप्पे  भर खट्टामीठा पानी
कुछ सूप पिया करते या गर्म गर्म कॉफी,
कुछ रायता दही का या दाल फिर मखानी
कुछ रसमलाई का रस,कुछ जमी हुई कुल्फी ,
घोटू जी पार्टियों में ,पीते नहीं है पानी

घोटू

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