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रविवार, 31 जनवरी 2016

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है,
लफ्जों में धूल जमा क्यों है,
आलम खामोशी का कुछ कह रहा,
अपनी धुन में सब रमा क्यों है..

डफली अपनी, अपना राग क्यों है,
मन में सबकी एक आग क्यों है,
कशमकश में है हर एक शख्स यहाँ,
रिश्तों में अब घुला झाग क्यों है..

हर आँख यहाँ खौफ जदा क्यों है,
मुस्कुराने की वो गुम अदा क्यों है,
भीड़ में रहकर खुद को न पहचाने,
खुद से ही सब अलहदा क्यों है..

एक होकर भी वो जुदा क्यों है,
आत्मा देह में गुमशुदा क्यों है,
पाषाण सा हृदय हो रहा है सबका,
तमाशबीन देख रहा खुदा क्यों है..

"प्रदीप कुमार साहनी"

बुधवार, 27 जनवरी 2016

कैसा तेरा प्यार था

(तेजाब हमले के पीड़िता की व्यथा)

कैसा तेरा प्यार था ?
कुंठित मन का वार था,
या बस तेरी जिद थी एक,
कैसा ये व्यवहार था ?

माना तेरा प्रेम निवेदन,
भाया नहीं जरा भी मुझको,
पर तू तो मुझे प्यार था करता,
समझा नहीं जरा भी मुझको ।

प्यार के बदले प्यार की जिद थी,
क्या ये कोई व्यापार था,
भड़क उठे यूँ आग की तरह,
कैसा तेरा प्यार था ?

मेरे निर्णय को जो समझते,
थोड़ा सा सम्मान तो करते,
मान मनोव्वल दम तक करते,
ऐसे न अपमान तो करते ।

ठान ली मुझको सजा ही दोगे,
जब तू मेरा गुनहगार था,
सजा भी ऐसी खौफनाक क्या,
कैसा तेरा प्यार था ?

बदन की मेरी चाह थी तुम्हे,
उसे ही तूने जला दिया,
आग जो उस तेजाब में ही था,
तूने मुझपर लगा दिया ।

क्या गलती थी मेरी कह दो,
प्रेम नहीं स्वीकार था,
जीते जी मुझे मौत दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

मौत से बदतर जीवन मेरा,
बस एक क्षण में हो गया,
मेरी दुनिया, मेरे सपने,
सब कुछ जैसे खो गया ।

देख के शीशा डर जाती,
क्या यही मेरा संसार था,
ग्लानि नहीं तुझे थोड़ा भी,
कैसा तेरा प्यार था ?

अब हाँ कह दूँ तुझको तो,
क्या तुम अब अपनाओगे,
या जो रूप दिया है तूने,
खुद देख उसे घबराओगे?

मुझे दुनिया से अलग कर दिया
जो खुशियों का भंडार था,
ये कौन सी भेंट दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

दोष मेरा नहीं कहीं जरा था,
फिर भी उपेक्षित मैं ही हूँ,
तुम तो खुल्ले घुम रहे हो,
समाज तिरस्कृत मैं ही हूँ ।

ताने भी मिलते रहते हैं,
न्याय नहीं, जो अधिकार था,
अब भी करते दोषारोपण तुम,
कैसा तेरा प्यार था ?

क्या करुँ अब इस जीवन का,
कोई मुझको जवाब तो दे,
या फिर सब पहले सा होगा,
कोई इतना सा ख्वाब तो दे ।

जी रही हूँ एक एक पल,
जो नहीं नियति का आधार था,
करती हूँ धिक्कार तेरा मैं,
कैसा तेरा प्यार था ?

-प्रदीप कुमार साहनी

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

परिंदे

                    परिंदे

वो परिंदे ,राजपथ पर ,उड़ते थे जो शान से ,
आजकल मेरी गली में ,नज़र वो आने लगे  है
चुगा करते थे कभी जो ,चुन चुन के ,मोती सिरफ़ ,
कुछ भी दाना फेंक दो ,वो बेझिझक खाने लगे है 
सुना है कि कोई जलसा ,होने वाला है वहां ,
सुरक्षा की व्यवस्थाएं ,चाक और चौबंद  है
हर तरफ से ,हर किसी पर रखी जाती है नज़र,
इसलिए उनका वहां पर ,हुआ उड़ना बंद है
ये भी हो सकता है या फिर 'इलेक्शन 'हो आ रहा ,
करो जन संपर्क तुम,ऐसा मिला  आदेश हो
'ख़ास' से वो 'आम'बन कर ,चाहते हो दिखाना ,
इसी चक्कर में बदल  ,उनने  लिया निज भेष हो
बने खबरों में रहें ,टी वी में  और  अखबार  में ,
कहीं भी ,कुछ हादसा हो ,दौड़ कर  जाने  लगे है
मगर उनकी असलियत सबकी समझ में आ गयी ,
जो कि पिछले कई वर्षों से, गए  उनसे ठगे  है 
फिर भी देखो ,हर तरफ ,हर गली में ,हर गाँव में,
जिधर देखो ,उस तरफ ,वो आज मंडराने  लगे है
 वो परिंदे,राजपथ पर ,उड़ते थे ,जो शान से ,
आजकल मेरी गली में ,नज़र वो आने  लगे  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

माँ की पीड़ा

                      माँ की पीड़ा              

बेटे ,जब तू रहा कोख में ,बहुत सताया करता था
मुझको अच्छा लगता था जब लात चलाया करता था
और बाद में ,लेट पालने में,जब भरता  किलकारी
जैसे साईकिल चला रहा ,लगती थी ये हरकत प्यारी
या फिर मेरी गोदी में चढ़,जब जिद्दी पर आता था
बहुत मचलता था ,रह रह कर,मुझ पर लात चलाता था
सोते सोते ,लात चलाने की, भी  थी ,आदत तेरी
बार बार तू ,हटा रजाई , कर देता  आफत   मेरी
तेरी बाल सुलभ क्रीड़ाएं, बहुत मोहती थी जो मन
नहीं पता था ,एक दिन ऐसे ,उभरेगी वो आफत बन
कभी न सोचा ,लात मारना ,ऐसा   रंग  दिखायेगा
लात मार कर ,अपने घर से ,एक दिन मुझे भगायेगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



अपहरण

                           अपहरण

मैंने थाने में लिखाई  ये रपट , चार  दिन से  हुआ सूरज  लापता
दरोगा ने मुझसे ये दरयाफ्त की ,अकेला या गया कुछ लेकर, बता
मैंने बोला' क्या बताऊँ तभी से ,'धूप 'भी गायब है,मन में क्लेश है
दरोगा बोले,नहीं गुमशुदाई ,अपहरण का ये तो लगता  केस  है
अच्छा ये बतला ,उमर क्या धूप की,कहीं नाबालिग तो ना थी छोकरी
कब से दोनों का था चक्कर चल रहा ,और कहाँ था ,सूर्य करता  नौकरी
फिरौती का कहीं तेरे पास तो,कहीं से कुछ फोन तो  आया  नहीं
मैंने बोला ,नहीं,पर उस रोज से ,नज़र मुझको आ रही 'छाया'कहीं
दरोगा जी बोले 'तू मत कर फिकर ,झेल दो दो लड़कियां ना पायेगा
एक मुश्किल से संभलती ,दो के संग,परेशां हो लौट खुद ही आएगा '

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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