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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

मच्छर की फ़रियाद

                  मच्छर की फ़रियाद

गौर वर्ण तुम सुन्दर देवी ,मै अदना सा मच्छर काला
तुम्हारे गालों  पर  बैठूं , करूं रूप रसपान तुम्हारा
गोरे हाथों में काला'हिट' लेकर तुम मुझ पर बरसाती
इधर उधर उड़ता फिरता मैं ,नानी मुझे याद आ जाती
तुम हिटलर सी 'हिट'लेकर के,करती बहुत जुलम हो मुझ पर
मुश्किल से मैं जान बचाता ,तुम्हारी जुल्फों में छिप कर
पर तुमतो बगदादी जैसी ,बन जाती हो एक जेहादी
बड़ी क्रूर ,आतंकी बनकर ,सदा चाहो मेरी  बरबादी
या नरेंद्र मोदी सी बन कर ,जब तुम्हारा जादू चलता
मेरी हालत कॉंग्रेस सी ,हो जाती पतली  और खस्ता
तुम्हे पता है ,हम सब मच्छर ,पानी में है पनपा करते
पानीदार तुम्हारा चेहरा ,इसीलिये है उस पर मरते
गोर गालों पर काला तिल,बनू ,निखारूँ रूप तुम्हारा
मुझ पर दया करो तुम देवी ,मैं तुम्हारा ,आशिक प्यारा 
गौर वर्ण तुम सुन्दर देवी ,मैं अदना सा मच्छर काला    
तुम्हारे गालों पर बैठूं ,करूँ  रूप  ,रसपान  तुम्हारा
   
मदन मोहन बाहेती'घोटू'               

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मूल तो फिर मूल है पर ब्याज प्यारा है...


शनिवार, 19 सितंबर 2015

कथनी पर मत जाओ - करनी पर अक्ल लगाओ...


उचटी नींद

           उचटी नींद
आती है नींद मुझको ,थोड़ी ठहर ठहर के
मैं सो भी नहीं पाता ,आराम से,जी भर के
मुद्दत से नहीं आई ,है मुझको नींद गहरी
हो रात पूस की या फिर जेठ की दोपहरी
मैं वक़्त काटता हूँ,करवट बदल बदल के
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
सीखा है जब से इसने ,यूं इस तरह उचटना
आता जो मुश्किलों से,जाता है टूट  सपना
रहता हूँ पड़ा यूं ही,तकिये को बांह भरके
आती है नींद मुझको ,थोड़ी ठहर ठहर के
यादें  पुरानी  मेरा  पीछा न छोड़ती  है
गाहे बगाहे आकर,मुझको झंझोड़ती है
आते है याद मुझको,किस्से इधर उधर के
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के
था जब बसंती मौसम ,हम फूल थे महकते
उड़ते थे आसमां में,पंछी  से हम चहकते
अब शिशिर में ठिठुरते है ठंडी आह भरके
आती है नींद मुझको,थोड़ी ठहर ठहर के

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

चुगलखोर

          चुगलखोर 

तुम मुझसे कुछ भी ना बोलो,मैं तुमसे कुछ भी ना बोलूं ,
हम समझ जाएंगे आपस में ,हमको जो सुनना कहना है
तुम चाहे मेरे पास रहो ,तुम  चाहे   मुझसे दूर  रहो ,
हमको इक दूजे के दिल में, बस साथ साथ  ही रहना है
कुछ भाषाएँ ऐसी होती ,जब मौन मुखर हो जाता है
आखें आँखों से कुछ कहती ,दिल दिल से कुछ कह जाता है
जब प्रेमी युगल मिला करते ,स्पर्श बहुत कुछ है कहता
बोला करते श्वासों के स्वर ,कहने को कुछ भी ना रहता
कुछ बिखरी जुल्फें कह देती,कुछ कह देता फैला काजल
कुछ थकी थकी सी अंगड़ाई ,कुछ कहता अस्तव्यस्त आँचल
वेणी के मसले हुए फूल,चूड़ी के टुकड़े  झड़े हुए
देते है सारा भेद खोल ,वो चादर के सल पड़े   हुए
है इतने सारे चुगलखोर ,इसलिए जरूरत ना पड़ती ,
कुछ कहने या बतलाने की,अब बेहतर चुप ही रहना है
तुम मुझसे कुछ भी ना बोलो,मैं तुमसे कुछ भी ना बोलूं ,
हम  समझ जाएंगे आपस में ,हमको जो सुनना ,कहना है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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