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शनिवार, 31 मई 2014

रस के तीन लोभी

   रस के तीन लोभी
            भ्रमर
गुंजन करता ,प्रेमगीत मैं  गाया करता 
खिलते पुष्पों ,आसपास ,मंडराया करता
गोपी है हर पुष्प,कृष्ण हूँ श्याम वर्ण मैं
सबके संग ,हिलमिल कर रास रचाया करता
मैं हूँ रस का लोभी,महक मुझे है प्यारी ,
मधुर मधु पीता  हूँ,मधुप कहाया  करता
               
                   तितली 
फूलों जैसी नाजुक,सुन्दर ,रंग भरी हूँ
बगिया में मंडराया करती,मैं पगली हूँ
रंगबिरंगी ,प्यारी,खुशबू मुझे सुहाती
ऐसा लगता ,मैं भी फूलों की  पंखुड़ी  हूँ
वो भी कोमल ,मैं भी कोमल ,एक वर्ण हम,
मैं पुष्पों की मित्र ,सखी हूँ,मैं तितली हूँ
              
             मधुमख्खी
भँवरे ,तितली सुना रहे थे ,अपनी अपनी
प्रीत पुष्प और कलियों से किसको है कितनी
पर मधुमख्खी ,बैठ पुष्प पर,मधु रस पीती ,
 मधुकोषों में भरती ,भर सकती वो जितनी
मुरझाएंगे पुष्प ,उड़ेंगे तितली ,भँवरे ,
संचित पुष्पों की यादें है मधु में कितनी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

देखो ये कैसा जीवन है

     देखो ये कैसा जीवन है

गरम तवे पर छींटा जल का
जैसे  उछला उछला  करता
फिर अस्तित्वहीन हो जाता,
बस  मेहमान चंद  ही पल का 
जाने कहाँ किधर खो जाता ,
सबका ही वैसा जीवन है
देखो ये कैसा जीवन है
मोटी सिल्ली ठोस बरफ की
लोहे के रन्दे  से घिसती
चूर चूर हो जाती लेकिन,
फिर बंध सकती है गोले सी
खट्टा  मीठा शरबत डालो,
चुस्की ले, खुश होता मन है
देखो ये कैसा जीवन  है
होती भोर निकलता सूरज
पंछी संग मिल करते कलरव
होती व्याप्त शांति डालों  पर,
नीड छोड़ पंछी उड़ते  जब
नीड देह का ,पिंजरा जैसा,
और कलरव ,दिल की धड़कन है
देखो ये कैसा जीवन है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू' 

हमारी दास्ताँ

            हमारी दास्ताँ

सभी ने जब सुनायी दास्ताने अपनी अपनी तो ,
      लगा ये  दास्ताँ सबकी ,मुझी  से मिलती जुलती है
यूं ही बैठा रहा मै कोसता तक़दीर को अपनी ,
          खुदा  को बददुआ देता रहा ,ये  मेरी गलती है 
मुकद्दर लिखने वाले ने ,खुशी गम लिख्खे है सारे ,
           किसी को थोडे कम है तो किसी को थोडे ज्यादा है 
किसी को बचपने में दुःख,कोई हँसता जवानी में,
            और मुश्किल से कोई काटता ,अपना बुढ़ापा  है
रहे हर हाल में जो खुश ,जूझ सकता हो मुसीबत से ,
            नाव तूफ़ान में भी उसकी हरदम पार लगती है
सभी ने जब सुनायी दास्ताने अपनी अपनी तो,
      लगा ये दास्ताँ सबकी ,मुझी से मिलती जुलती है            
 राह में जिंदगी की कितने ही पत्थर पड़े मिलते,
      करोगे साफ़ जब  रोड़े ,तभी बढ़ पाओगे   आगे
उठाओगे जो पत्थर ,कोई हीरा मिल भी सकता है,
      बिना कुछ भी किये क्या भाग्य कोई का कभी जागे  
जो पत्थर राह की अड़चन है उनमे है बड़ी ताक़त ,
      जब टकराते है आपस में ,तो चिंगारी  निकलती  है
सभी ने जब सुनायी दास्ताने अपनी अपनी तो,
       लगा ये दास्ताँ सबकी,मुझी से मिलती जुलती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 30 मई 2014

मॉडर्न बीबियाँ

          मॉडर्न बीबियाँ

सुनती हैं इस कान से ,उस कान से देती निकाल ,
बात अपने पतियों की,भला सुनता  कौन है
आजकल इस बात की भी उनको है फुर्सत नहीं,
कान में अब लगा रहता ,उनके ईयर फोन है
हाथों में ले हाथ ,हमसे बात करते थे कभी,
दास्ताँ बन रह गए है ,वो पुराने दिन सभी ,
क्योंकि उनके हाथ में है रहता मोबाईल सदा ,
हो गया दिल उनका अब 'डू नाट डिटर्ब 'झोन 'है

घोटू  

बुधवार, 28 मई 2014

मज़ा -छतों का

   मज़ा  -छतों का

हमें है याद आती 'घोटू'रातें गर्मियों की वो,
छतों पर लोग सोते थे,छतें गुलजार रहती थी
चांदनी रात में हर छत पे जब चन्दा चमकता था,
थपकियाँ दे सुलाती थी,हवाएँ मस्त बहती थी
धूप में सर्दियों की ,छतों पर चौपाल जमती थी ,
कभी बड़ियाँ ,कभी पापड कभी आचार बनते थे
टूटते व्रत थे करके चन्द्र दर्शन ,छतों पर जाकर ,
जब करवा चौथ के और तीज के त्यौहार मनते थे
अकेले,चुपके चुपके ,छत पे जाकर ,मज़ा मिलने का,
याद अब  जब भी आता ,मुंह में मिश्री घोल देता है
पड़ोसी की छतों पर ताकने  का,झाँकने का  सुख,
राज़ कितने ही अनजाने ,अचानक खोल देता है
पड़ोसन अपनी गीली जुल्फों से ,मोती छिटकती थी,
सवेरे ही सवेरे ये बड़ा उपहार होती  था
हमें जब कनखियों से ,अपने छत से ,देखती थी वो,
हमारे तन और मन में   गुदगुदी हर बार होती थी
मगर अब फ्लेट है  कितने, इमारत कितने मंज़िल की,
अकेली रह गयी उन पर ,बिचारी छत ,तरक्की में
अब तो बस लोग अपने घरों में ही दुबके रहते है ,
लिया है छीन हमसे छतों का सुख,इस तरक्की ने

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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