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शुक्रवार, 2 मार्च 2012

श्रृंगार

(बाल विवाह की पीढ़ा को दर्शाने का एक अल्प प्रयास कविता के माध्यम से)
बहुत कुछ चाहती थी वो करना,
सपना था उसका कुछ बनना |
पर उस अग्नि की वेदी में ,
इक दिन उसको भी पड़ा जलना |
सोचती रह गयी बस वो,
सोचा था उसने जो,
क्या कर पायेगी उसे अब पूरा ?
उसकी इच्छाएं ,उसके सपने,सब कुछ रह गया अधूरा |
उसको अपना ये श्रृंगार,लगने लगा था अपनी हार |
नए जीवन में हो रहा था प्रवेश 
 मन में बाकी थे बस उम्मीदों के कुछ अवशेष |
वो खनखनाहट नहीं थी उसकी चूड़ियों की,
बल्कि आवाज थी उसकी मजबूरियों की |
ये बेड़ियाँ समाज की ,
पायल बन के बंध चुकी थी पैरों में ,
अपनी की सिर्फ यादों को लेकर जा रही थी वो गैरों में |
बिंदिया ,सिदूर और काजल ,
मंडरा रहे थे उसकी उम्मीदों पर बन के बादल |
सोच के गहरे समुद्र में डूबती जा रही थी वो ,
कुछ और ही चाहा था उसने कुछ और ही पा रही थी वो |
अपने ही श्रृंगार में स्वयं ही दबती जा रही थी वो ,
कुछ और ही माँगा था उसने कुछ और ही पा रही थी वो |

                                                                                                       
                                        अनु डालाकोटी


ससुराल-मिठाई की दूकान

ससुराल-मिठाई की दूकान
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सालियाँ,नमकीन सुन्दर,और साला  चरपरा
टेड़ी सलहज जलेबी सी,मगर उसमे  रसभरा
सास रसगुल्ला रसीली,कभी चमचम रसभरी
काजू कतली उनकी बेटी,मेरी बीबी  छरहरी
और लड्डू से लुढ़कते, ससुर  मोतीचूर  हैं
हर एक बूंदी रसभरी है,प्यार से भरपूर  है
गुंझिया सा गुथा यह परिवार रस की खान है
ये मेरा ससुराल  या मिठाई  की दूकान  है
(होली की शुभकामनाये)
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

स्वप्नों की मंडी


मै स्वप्न खरीदने निकला ,
एक दिन , स्वप्नों के बाज़ार में ,
बड़ी भीड़ थी ,
ठसाठस भरे थे खरीदार ,
रंगीले स्वप्न , रसीले स्वप्न ,
स्वप्नों की मंडी में स्वप्न ही स्वप्न ,
सब नींद में थे ,
जागना भी नहीं चाहते ,
स्वप्न साकार करने की हिम्मत नहीं थी ना ,
दरअसल स्वप्न साकार करने के बजाय ,
स्वप्न खरीदना आसान लगता है ,
समय है किसके पास ,
सब व्यस्त है स्वप्न खरीदने में ,
स्वप्न खरीदने में जितना समय लगता है ,
उससे कम समय साकार होने में ,
करके तो देखो ,
स्वप्न की मंडी मे दिग्भ्रमित हो जाओगे ,
स्वप्नों की दुनिया से निकल कर यथार्थ मे ,
जीकर देखो
विनोद भगत

गुरुवार, 1 मार्च 2012

खेलो होली

घरवालों संग खेलो होली ,घरवाली संग खेलो होली
साला तो शैतान बहुत है ,तुम साली संग खेलो होली
जिनको सदा देखते हो तुम ,हसरत भरी हुई नज़रों से
जवां पड़ोसन ,प्यारी समधन,दिलवाली संग खेलो होली
यूँ तो सलहज सहज नहीं है,बस होली का ही मौका है,
कस कर पकड़ो रंग लगा,मतवाली के संग खेलो होली
लेकर रंग भरी पिचकारी,तन को इतना गीला करदो,
चिपके वस्त्र दिखे सब कुछ उस छवि प्यारी संग खेलो होली

होली आई रे

होली आई  रे  

फागुनी बयार चलने लगी है 
फागुन ऋतू आई है 
मोसम सुहाना होने लगा है 
डेसू के फूलों की लालिमा छाई है         




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http://prernaargal.blogspot.in/2012/02/happy-holi.html

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